Reported By Dy. Editor, SACHIN RAI, 8982355810
नेपाल के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल ने कहा है कि वे नेपाल को केंद्र में रखकर दुनिया के देशों के साथ अपने संबंध बनाएंगे.
अपने पिछले कार्यकाल के दौरान कुछ मामलों में पुष्प कमल दाहाल पर चीनी समर्थक होने की तोहमत लगी थी. इसके अलावा अमेरिका के साथ जो पचास करोड़ डॉलर का अनुदान समझौता हुआ था जिस पर शुरुआत में प्रचंड का मत सकारात्मक नहीं दिखा था.
अहम सवाल यह है कि इस बार वे किस तरह का कूटनीतिक व्यवहार अपनाएंगे?
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने एबीपी न्यूज चैनल से बात की.
उन्होंने कहा, “आज जिस तरह से नेपाल की राजनीति आगे बढ़ रही है, उसमें कोई चीन, भारत या अमेरिका की तरफ नहीं झुका हुआ है. हम सभी के साथ मिलकर काम करते हैं.”
जब उनसे सवाल किया गया है, ‘एक नेपाली प्रधानमंत्री की एक बड़ी चुनौती रहती है कि आप भारत के या तो ‘येस मैन’ बनिए या ‘एंटी इंडिया’ बनिए. बीच की रेखा में चलना एक बड़ी चुनौती है.’
इसके जवाब में उन्होंने कहा, “शुरुआत से ही मैं प्रो-नेपाल वाली लाइन पर जाना चाहता हूं. भारत, चीन और विदेशी मित्रों के साथ अच्छा संबंध बनाना हमारा उद्देश्य रहेगा. राजशाही के समय पर किसी को प्रो इंडिया, प्रो चीन तो किसी को प्रो अमेरिका कहकर नेपाल की राजनीति को चलाने की गलत परंपरा थी.”
“संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र होने के नाते भारत के साथ जो हमारा खास रिश्ता है, वो दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता है. हमारा बॉर्डर, इतिहास, भाषा, संस्कृति और लोगों से लोगों का जो रिश्ता है वह कहीं देखने को नहीं मिलता है. उसी के मुताबिक भारत-नेपाल के संबंधों को आगे लेकर जाना है.”
विदेशी मामलों के जानकारों का कहना है कि पुष्प कमल दाहाल ने दस सालों तक सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया है. वे तीसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए हैं. उनके सामने अतीत की तुलना में इस समय विदेशी संबंधों को चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है.
प्रचंड के पीएम बनने पर चीन कितना सहज है?
दाहाल के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें सोशल मीडिया पर बधाई दी है.
वहीं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने नई सरकार के साथ सहयोग की बात कही है. “एक पारंपरिक पड़ोसी मित्र के रूप में हम चीन-नेपाल संबंधों को बहुत महत्व देते हैं. दोनों देश संयुक्त रूप से बेल्ट एंड रोड नेटवर्क का निर्माण करेंगे.”
काठमांडू में अमेरिकी दूतावास ने भी प्रचंड को बधाई देते हुए कहा कि वे नेपाल की लोकतांत्रिक परंपरा का समर्थन करना जारी रखेंगे.
प्रचंड कमल दाहाल जो चुनाव से पहले शेर बहादुर देउबा के साथ सहयोग कर रहे थे. उन्होंने आखिरी समय में सरकार बनाने के लिए अपने आलोचक और यूएमएल अध्यक्ष केपी ओली के साथ मिलाया.
नेपाल की 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के महज़ 32 सदस्य हैं. प्रचंड को केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का समर्थन मिला है. ओली की पार्टी के पास 78 सीटें हैं.
सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के निदेशक निश्चलनाथ पांडेय ने कहा कि प्रचंड को आंतरिक स्थिरता पर जोर देना चाहिए क्योंकि यह कमजोर बहुमत से बनी गठबंधन की सरकार है.
वे कहते हैं, “ऐसा लगता है कि यह चीन के लिए थोड़ा आसान होगा क्योंकि दो कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर सरकार बना ली है, लेकिन यह सरकार कमजोर दिखाई देती है, क्योंकि इसमें कई विचारधाएं शामिल हैं. शक्तिशाली देश सरकार में वैचारिक एकरूपता की कमी को महसूस करते हैं.”
उन्होंने कहा, “अगर यह सरकार गिर भी जाती है, तो ऐसी गठबंधन सरकार कमजोर स्थिति में भी बनाई जा सकती है. इसलिए फिर से चुनाव कराने की बात को खारिज किया गया है.”
भारत-नेपाल संबंधों पर क्या प्रभाव?
नेपाल में जब दाहाल की कम्युनिस्ट पार्टी सशस्त्र संघर्ष में लगी थी उस वक्त उन्होंने भारत में शरण ली थी.
नेपाल के संसदीय दलों के साथ दिल्ली की मदद से 12 बिंदु समझौते के ज़रिए दाहाल की नेपाल की मुख्यधारा में वापसी हुई थी. पहली संविधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद प्रचंड ने पहली विदेश यात्रा पर चीन गए थे.
जब यह सामने आया है कि उनके नेतृत्व वाली सरकार ने नेपाली सेना के चीफ ऑफ स्टाफ के खिलाफ कार्रवाई की है उस समय उनके और भारत के बीच संबंध बहुत खराब चल रहे थे.
उसके बाद शेर बहादुर देउबा के समर्थन से वे दूसरी बार प्रधानमंत्री तो बने लेकिन उन्हें सात साल का इंतजार करना पड़ा.
पिछले चुनावों में प्रचंड दाहाल की पार्टी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन इसके तुरंत बाद उनकी पार्टी का ओली के यूएमएल में विलय हो गया था.
इसके बाद चीन ने नेपाल में वैचारिक चर्चा शुरू की. भारत के नक्शे को लेकर नेपाल का विवाद बढ़ा, जिसके बाद नेपाल ने कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा क्षेत्रों को अपना बताते हुए एक अलग नक्शा जारी किया था.
नेपाल और गुटनिरपेक्षता
बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के भीतर अंदरूनी लड़ाई के चलते दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां अपनी पुरानी स्थिति में बंट गई.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से शेर बहादुर के नेतृत्व वाली सरकार बनने के बाद यह देखा गया कि नेपाल की राजनीति और यहां विदेश नीति में संतुलन एक नई दिशा की ओर बढ़ रहा है.
अब प्रधानमंत्री बनने के बाद एबीपी न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में प्रचंड ने संकेत दिए हैं कि उनकी पहली विदेश यात्रा भारत में होगी.
दिल्ली स्थित विश्लेषक कॉन्सटैंटिनों जेवियर ने ट्वीट किया है कि भारत-नेपाल संबंध दोनों पक्षों में राजनीतिक परिवर्तन को बनाए रखने के लिए पर्याप्त परिपक्व हैं.
उन्होंने लिखा कि पीएम दाहाल और दूसरे नेताओं या पार्टियों को भारत या चीन के किसी भी खेमे में बांटना नासमझी होगा. नेपाल गुटनिरपेक्षता के साथ अपनी विदेश नीति को बनाए रखने का प्रयोग जारी रखेगा.
उन्होंने टिप्पणी की कि भले ही नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत की भागीदारी कम हो रही है, बावजूद इसके अभी भी नेपाल में कुछ लोग हो रहे सभी बदलावों में भारत का हाथ मानते हैं.
पांडे कहते हैं कि चूंकि अलग अलग विचारधारा वाली पार्टियां सरकार में आई हैं और उनमें से कई नई हैं. इसलिए दिल्ली के लिए उनसे संबंध बढाना एक चुनौती होगा.
नई सरकार में कैसी होगी प्रचंड की विदेश नीति?
नेपाल के इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन अफेयर्स के पूर्व उप कार्यकारी निदेशक रूपक सपकोटा का कहना है कि माओवादी सेंटर के अध्यक्ष हाल ही में एक समझदार विदेश नीति के पक्ष में खड़े हुए हैं. जिसका उद्देश्य नेपाल के राष्ट्रीय हितों का निर्माण करना है. साथ ही दोनों पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते भी अच्छे रखने हैं.
उन्होंने कहा, “पिछले कार्यकाल के अनुभव के आधार पर उनके अपने राजनीतिक जीवन और वैश्विक स्थिति में बदलाव के आधार पर एक अधिक परिपक्व, संतुलित और समझदार कूटनीति की जरूरत है.”
सपकोटा कहते हैं, “कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते पार्टी का वैचारिक झुकाव हो सकता है, जिसका नेतृत्व प्रचंड करते हैं, लेकिन विदेशी संबंधों के मामले में किसी पार्टी या देश की बजाय नेपाल को आगे रखकर काम करना चाहिए. इसके अलावा विदेश नीति के संबंध में पंचशील के सिद्धांत के आधार पर संबंध बनाए रखने चाहिए जिसे नेपाल वर्तमान में अपना रहा है.”
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री प्रचंड दोनों देशों के बीच अनसुलझे सीमा विवाद पर बात करने की कोशिश करेंगे.
उनका मानना है कि यह सरकार आर्थिक कूटनीति पर ज्यादा जोर देगी.