वेब सीरीज ‘मुखबिर : द स्टोरी ऑफ अ स्पाई’ से ओटीटी का रुख करने वाले एक्टर जैन खान दुर्रानी ने इस सीरीज, उनके करियर और कश्मीर पर ढेर सारी खास बातचीत की। उन्होंने बताया कि ‘मुखबिर : द स्टोरी ऑफ अ स्पाई’ में उनके किरदार हरफन में क्या खास बात है।
हाइलाइट्स
- जैन खान दुर्रानी वेब सीरीज ‘मुखबिर : द स्टोरी ऑफ अ स्पाई’ को लेकर हैं चर्चा में
- उन्होंने कहा आतंक और राजनीतिक पहलू से कहीं ज्यादा है कश्मीर का कद
‘कुछ भीगे अल्फाज’, ‘शिकारा’ और ‘बेल बॉटम’ जैसी फिल्मों में नजर आए एक्टर जैन खान दुर्रानी ने अब वेब सीरीज ‘मुखबिर : द स्टोरी ऑफ अ स्पाई’ से ओटीटी का रुख किया है। कश्मीर बैकड्रॉप पर बनी इस सीरीज में जैन एक भारतीय जासूस की भूमिका में हैं। इसी सिलसिले में हमने जैन से इस सीरीज, उनके करियर और कश्मीर पर की खास बातचीत
हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच तनाव और जासूसी को लेकर पहले भी कई सीरीज बन चुकी है। ऐसे में, ‘मुखबिर : द स्टोरी ऑफ अ स्पाई’ और आपके किरदार हरफन में आपको क्या अलग लगा?
आप सही कह रही हैं, ऐसी जासूस वाली कई सीरीज हम पहले देख चुके हैं लेकिन एक जासूस होने का जो मानवीय पहलू है कि जासूस बनने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है। न केवल उस जासूस की जिंदगी, बल्कि अपने काम के लिए जिनकी जिंदगी में वे शामिल होते हैं, उन पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह सब पहले किसी सीरीज में नहीं दिखाया गया है। सीरीज आपको एक थ्रिलर और ऐतिहासिक फिक्शन का अहसास तो देती ही है, साथ ही वह आपको पर्सनल लेवल पर जोड़ती है कि कितने ही ऐसे लोग हैं, जिनके बारे में हम जान या सुन नहीं पाते, पर उनकी कुर्बानी कितनी बड़ी होती है। फिर, हरफन कोई रेग्युलर जासूस नहीं है जेम्स बॉन्ड जैसा। वह अनकंवेंशनल है, ऐसी दुनिया से आता है, जहां उसे अपना ख्याल खुद रखना पड़ा, क्योंकि वो अनाथ है। चार्मिंग है, स्मार्ट है। अचानक कुछ ऐसा होता है कि भारतीय इंटेलिजेंस उसे पाकिस्तान में जासूसी के लिए चुनती है। वहां उसकी जिंदगी में क्या बदलाव आते हैं, वो कैसे इस सबसे निपटता है, यह सब मेरे लिए काफी इंट्रेस्टिंग और लेयर्ड था।
‘मुखबिर’ से पहले फिल्म ‘शिकारा’ में भी आप कश्मीरी किरदार में थे। आप खुद कश्मीर से हैं तो क्या ये किरदार निभाने में मदद मिलती है? साथ ही क्या इससे आपके मन में टाइपकास्ट होने का डर कभी नहीं आया?
‘शिकारा’ का मेरा करैक्टर लतीफ बेशक कश्मीर से था। वो कश्मीर में ही पला बढ़ा, वहीं उसकी कहानी का निचोड़ था लेकिन ‘मुखबिर’ में कश्मीर का बैकड्रॉप जरूर है, पर हरफन पला बढ़ा दिल्ली में है। इस लिहाज से वो अलग है। रही बात टाइपकास्ट होने की, तो जब आप इस इंडस्ट्री में आते हैं और शुरुआत कर रहे होते हैं तो जो मौके मिलते हैं, वो आपको लेने पड़ते हैं। आप निश्चित तौर पर अच्छे काम को लेकर चूजी होते हैं पर कभी भी अगर आपको एक अच्छा बैनर, अच्छे डायरेक्टर मिलते हैं, जैसे ‘शिकारा’ में मैंने विधु विनोद चोपड़ा जी के साथ काम किया, जिसे मुझे नहीं लगता कि कोई भी ऐक्टर ना बोल सकता है, तो मैंने जरा भी इस बारे में नहीं सोचा। आखिर में आप पर्दे पर दिखें, लोग आपका टैलंट देखें, वो बहुत अहम है। ऐसा ही ‘बेल बॉटम’ के साथ हुआ कि अच्छा प्रॉडक्शन हाउस, अक्षय कुमार के खिलाफ मेन विलेन का रोल, तो टाइपकास्ट जैसी चीजें बाद में आती हैं, पहले आपके जेहन में खयाल आता है कि काम करो। जो मिल रहा है, वो करो, क्योंकि मेरा मानना है कि हमारी ऑडियंस इवॉल्व हो रही है। आप नेगेटिव रोल करें या किसी खास जगह का रोल करें, ऑडियंस अगर देखेगी कि आपका काम अच्छा है तो वो आपको किसी भी रोल में कुबूल करेगी। फिर, मेरे जैसा एक ऐक्टर जो मुंबई से बाहर से आकर यहां काम कर रहा है, मेरे लिए टाइपकास्ट जैसी चीजें सोचने से ज्यादा ध्यान अच्छा काम करने और काम पाने पर रहता है। हालांकि, आप सही हैं कि बाद में आप एक ऐसे स्टेज पर पहुंचना चाहते हैं जहां आप अलग-अलग तरह के रोल कर सकें। वैसे मुझे लगता है कि मेरी पहली फिल्म से अब तक के चारों किरदार एक दूसरे से बिल्कुल अलग रहे हैं। उस लिहाज से मैं खुशकिस्मत हूं।
जैसा आपने कहा, आपने मुंबई के बाहर से आकर यहां अपनी जगह बनाई। ये सफर कितना मुश्किल रहा?
मुझे लगता है कि ये मुश्किल हर किसी के साथ होती है। आपने भी बहुत सी कुर्बानियां दी होंगी इस जगह तक पहुंचने के लिए। मेरे बहुत से दोस्त कॉर्पोरेट की नौकरी में भी हैं, जो कश्मीर से आकर मुंबई में जॉब कर रहे हैं, उनके भी बड़े चैलेंजेज हैं। हां, इंडस्ट्री में ये बात है कि आपको धैर्य बहुत ज्यादा रखना पड़ता है क्योंकि आप बैठे-बैठे अच्छे काम का इंतजार कर रहे हैं, आप अपना लोहा भी मनवाना चाहते हैं, लेकिन जब वो एक-एक साल गुजरता है, तो आपमें डर आने लगता है कि और कितना वक्त लगेगा लेकिन दृढ़ता जो हर जगह काम आती है, यहां भी काम आती है। आपको खुद पर काम करते रहना होता है, जो काम मिले वो करना पड़ता है और बाकी नसीब पर होता है।
आपकी फिल्म ‘शिकारा’ कश्मीरी पंडितों के साथ हुए दर्दनाक हादसे पर थी, पर दर्शकों से उसे वो प्यार नहीं मिला, जो इसी विषय पर आई ‘कश्मीर फाइल्स’ को मिला। आपकी इस पर क्या प्रतिक्रिया रही? क्या थोड़ी निराशा हुई?
‘शिकारा’ मूल रूप से एक लव स्टोरी थी, जो उस बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण वाकये के (कश्मीरी पंडितों के निष्कासन) बैकड्रॉप पर थी। जबकि, कश्मीर फाइल्स उसी हादसे पर मुख्यत: फोकस्ड थी तो निराशा वाली बात नहीं थी। हर फिल्म, हर कहानी, हर प्रोजेक्ट की अपनी किस्मत होती है और मेरा मानना है कि आपको उसे उसी तरह लेना होता है। इससे ज्यादा हम इस बारे में क्या ही कह सकते हैं।
पर्दे पर कश्मीर में अमूमन दो ही रूपों में ही पेश किया जाता रहा है। एक तो खूबसूरती की मिसाल जन्नत, दूसरा आतंक और हिंदुस्तान-पाकिस्तान तनाव का केंद्र ! आप खुद कश्मीर से हैं, आपके हिसाब से कश्मीर का ये सिनेमाई चित्रण हकीकत के कितना करीब, कितना रियलिस्टिक है?
देखिए, एक चीज तो तय है कि लोग कश्मीर की सच्ची कहानियां देखना चाहते हैं। रही बात उनके रियलिस्टिक होने की, तो जैसे हमारे सिनेमा में बाकी जगहों की कहानियां इवॉल्व हो रही हैं, वैसे ही कश्मीर की कहानियां भी आहिस्ता-आहिस्ता इवॉल्व होते-होते रिएलिटी के करीब आना शुरू हो जाएगी। मुझे लगता है कि अभी हम भारत के अलग-अलग हिस्सों के बारे में लोगों को एजुकेट करने के प्रॉसेस में हैं, जो अच्छी बात है। वरना पहले आप या तो मुंबई या फिर इंडिया के बाहर की कहानी देखते थे। अब लोग देश के अलग-अलग हिस्सों की कहानियां में इंट्रेस्टेड हैं। वे लोकल स्टोरीज में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं। ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, जो इसीलिए पसंद की गईं क्योंकि वे देश के ऐसे जगहों की थीं, जिनके बारे में बात नहीं हुई थी। कश्मीर भी उसी का एक हिस्सा है। मेरे ख्याल से हम इवोल्यूशन (विकास) की प्रक्रिया में है कि देश के इस हिस्से की बेहतर समझ वाली कहानियां भी गढ़ें। मैं उम्मीद करता हूं कि हमें कश्मीर की और ज्यादा कहानियां देखने को मिले और ऐसे लोग हैं जो ऐसी कहानियां बना रहे हैं। सिर्फ आतंक या राजनीतिक पहलू के बारे में नहीं, क्योंकि कश्मीर उससे कहीं ज्यादा है। उसका बहुत ही समृद्ध इतिहास है, इतने किस्से हैं, लोक कहानियां हैं, रहस्यवादी और स्पिरिचुअल पहलू है, जो इस पिछले बीस-पच्चीस सालों के उथल-पुथल से एक तरीके से दब गया है। मैं उम्मीद करता हूं कि कश्मीर में ये चीजें बेहतर हों तो हम कश्मीर को सिर्फ अस्थिरता की धरती के तौर पर ही एक्सप्लोर न करें, बल्कि एक ऐसी जगह जहां खूब सारा इतिहास, संस्कृति, अच्छी कहानियां हैं, उसे एक्सप्लोर किया जाए। मेरा मानना है कि जिस पल हम कश्मीर के दूसरे पहलुओं पर चर्चा करने लगेंगे, मेकर्स भी उन पहलुओं पर फिल्म बनाएंगे।