अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद नारनौल के रहने वाले सीआरपीएफ कमांडेंट राजेंद्र कुमार स्वामी को चार्जशीट का सामना करना पड़ा और लिब्रहान आयोग व कोर्ट केसों को सेवानिवृत्ति के बाद भी झेलना पड़ा। तत्कालीन केंद्र सरकार ने विवादित ढांचे की सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को फोर्स मुहैया करवाई थी लेकिन दो लाख कार सेवकों को रोक पाना संभव ही नहीं था।
राम मंदिर आंदोलन के समय करीब दो लाख कार सेवकों ने अयोध्या पहुंचकर ऐसा माहौल बना दिया था कि सुरक्षा में तैनात उत्तर प्रदेश पुलिस व केंद्रीय सुरक्षा बल के अधिकारी व जवान असहाय महसूस कर रहे थे। वे समझ गए थे कि गोलियां चलाने से बड़ी संख्या में कारसेवकों की जान तो जाएगी, लेकिन विवादित ढांचा फिर भी सुरक्षित नहीं बचेगा
स्वामी बताते हैं, अयोध्या में विवादित ढांचे की सुरक्षा के लिए तीन घेरों में सुरक्षा बल तैनात किए गए थे। ढांचे के बाहर दो घेरों में उत्तर प्रदेश पुलिस तथा पीएसी तैनात थी, जबकि अंदर सीआरपीएफ की एक कंपनी तथा महिला फोर्स थी। हमारी ड्यूटी अंदर रह कर ढांचे की सुरक्षा करने की थी। उत्तर प्रदेश सरकार का आदेश था कि सीआरपीएफ को ढांचे के अंदर रहकर सुरक्षा करनी है।
विवादित ढांचे की दीवारें चार से छह फीट चौड़ी थीं और पत्थरों की बनी थीं। दीवार की ऊंचाई आठ से नौ फीट थी। ऐसे में सीआरपीएफ के जवान छह दिसंबर 1992 को बाहर से हो रहे हमले को न तो देख सकते थे और न ही फायर कर सकते थे।
वैसे भी दो लाख से अधिक कार सेवकों ने विवादित ढांचे की ओर कूच किया था। उस समय विवादित ढांचे में 117 जवान मौजूद थे। शेष कंपनियां बाहर थीं। ऐसे में दो लाख कार सेवकों को रोक पाना संभव ही नहीं था।
अचानक हुआ था हमला
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते विवादित ढांचे से 20 गज की दूरी तक, सुरक्षा घेरे के भीतर तक लाखों कार सेवकों को आने दिया गया था। हमला अचानक हुआ और बाहर दोनों सुरक्षा घेरों ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। ढांचे के अंदर तैनात ड्यूटी मजिस्ट्रेट वहां से भाग गए थे।
हजारों की तादाद मे कार सेवकों के प्रवेश के बाद उन पर बल प्रयोग संभव तथा प्रभावशाली नहीं था। यदि हम फायर कर भी देते तो इतनी संख्या में आए कार सेवकों को रोकना असंभव था। वैसे भी नियम यह है कि यदि कार्य करना संभव न हो तो कुछ लोगों की जान नहीं ली जा सकती।
मैंने बस सही का साथ दिया…
लिब्रहान आयोग से लेकर कोर्ट तक हुई गवाही के दौरान मैंने अपनी बात तथ्यात्मक रूप में रखी थी। केंद्र सरकार द्वारा भेजी गई फोर्स मेरे नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार के निर्देशों के अधीन थी, जिसका इस्तेमाल उत्तर प्रदेश सरकार ने नहीं किया।
आयोग से कोर्ट तक की लंबी कानूनी कार्यवाही के दौरान कई बार मैं हतोत्साहित हुआ, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद मेरा आत्मविश्वास अधिक दृढ़ हुआ, क्योंकि मैंने बस सही का साथ दिया।
जैसे प्रभु राम ने ही सौंपी थी सुरक्षा की जिम्मेदारी
अब जब 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि पर भगवान राम के भव्य मंदिर में रामलला के नूतन विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है तो मुझे अत्याधिक खुशी का अनुभव हो रहा है। विश्वास के साथ लगता है कि मुझे तब भगवान राम ने ही वहां सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी थी।
अंततः सभी ने सही माना
ढांचा ढहने के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने विवादित ढांचा ध्वंस की जांच के लिए आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रहान की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया। 16 दिसंबर 1992 को गठित इस आयोग ने 17 साल तक जांच का कार्य किया। आयोग को तीन माह में रिपोर्ट पेश करनी थी, लेकिन इस आयोग का 48 बार कार्यकाल बढ़ाया गया।
आखिरकार 30 जून 2009 को इस आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रिपोर्ट सौंपी। स्वामी ने बताया, असल में विवादित ढांचे के अंदरूनी हिस्से की सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी थी, इससे मुझे चार्जशीट दी गई और लिब्रहान आयोग में जवाब देना पड़ा।
रायबरेली और लखनऊ स्पेशल कोर्ट में भी क्रिमिनल केस चले, जिनमें मैं अभियोजन पक्ष के गवाह के तौर पर सेवानिवृत्ति के बाद भी पेश होता रहा, लेकिन अंत में सभी ने मेरी बात सही मानी।