प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन पसमांदा मुसलमानों की बात की, वो कौन हैं

Reported By Dy. Editor, SACHIN RAI, 8982355810

मोदी मुसलमान

‘पसमांदा’ मुसलमान कोई ताज़ा-ताज़ा शब्द नहीं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक सम्मेलन में इसके इस्तेमाल के बाद पसमांदा के शाब्दिक, सामाजिक और इतिहास के संदर्भ में अर्थ को लेकर दिलचस्पी फिर से जग गई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को समाप्त हुई भारतीय जनता पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि वो ‘वोट की चिंता के बिना’ संवेदनशीलता के साथ समाज के सभी वर्गों से रिश्ता जोड़ें’- इसी संदर्भ में बोहरा, पसमांदा मुसलमानों और दूसरे तबक़ों के ख़ास तौर पर ज़िक्र की बातें कई जगहों पर कही जा रही हैं.

पसमांदा फ़ारसी का शब्द है, जिसका अर्थ है वो जो पीछे छूट गए.

साधारण शब्दों में वैसे मुसलमान जो क़ौम के दूसरे वर्गों की तुलना में तरक्क़ी की दौड़ में पीछे छूट गए, उन्हें पसमांदा कहते हैं. उनके पीछे रहने की वजहों में से एक बड़ा कारण जाति व्यवस्था बताई जाती है.

पसमांदा शब्द का प्रयोग पहली बार ‘वर्ग को लेकर’ किया गया था लेकिन बरसों बाद इसका इस्तेमाल मुसलमानों के भीतर पिछड़ों (अदर बैकवर्ड कास्ट), अनुसूचित जाति और जनजातियों को लेकर होने लगा है.

पूर्व राज्यसभा सांसद और पत्रकार अली अनवर अंसारी ने एक बातचीत में बीबीसी से कहा था कि वो बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद मज़हब के इर्द-गिर्द घूमनेवाली राजनीति को लेकर बेहद मायूस थे और चाहते थे कि मुसलमानों के भीतर वर्ग की पहचान कर मज़हब पर आधारित सियासत को चैलेंज किया जाए.

अली अनवर अंसारी ने इसके लिए शोध और फील्ड स्टडी कर एक किताब, मुसावात की जंग (शाब्दिक अर्थ बराबरी की जंग) नाम की किताब भी 1990 के दशक में लिखी.

मुसलमान

क्या भारतीय मुसलमानों में जाति-व्यवस्था की पैठ है?

मुसलमानों का एक वर्ग हालांकि समुदाय में किसी तरह के जात-पांत, ऊंच-नीच की बात से इनकार करता है, ये कहता है कि “इस्लाम बराबरी में यक़ीन रखने वाला मज़हब है लेकिन सच ये है कि मुसलमानों के भीतर भी जाति व्यवस्था की जकड़ ख़ासी मज़बूत है.”

इस मुद्दे पर दो बातें अहम हैं- इसमें पहली बात जिसका ज़िक्र सिलविया वटुक जैसी समाजशास्त्रियों का कहना है कि मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था को हिंदू समाज की तुलना में नहीं देखा जाना चाहिए यानी ये उस तरह या उस स्तर की नहीं है जैसा हिंदुओं के भीतर देखने को मिलता है. दूसरा, जात-पांत की ये व्यवस्था दक्षिण एशिया के मुस्लिमों के भीतर सीमित है.

इसकी वजह ये बताई जाती है कि दूसरे धर्म के लोगों ने, जिनमें बड़ी तादाद हिंदुओं की थी, ने जब इस्लाम क़ुबूल किया तो पुरानी परंपराओं, और कुछ रूढ़ियों को भी साथ लेते आए, इनमें एक जातिवाद भी है.

पसमांदा के पहले के शब्द

कुछ जगहों पर ये तर्क दिया जाता है कि मुसलमानों में जाति का मसला अंग्रेज़ी हुकूमत का खड़ा किया हुआ है. तर्क है कि अंग्रेज़ सरकार ने ‘सरकारी’ मुसलमानों के साथ मिलकर इसे अंजाम दिया ताकि क़ौम को बांटा जा सके.

यह कुछ उसी तरह का तर्क है जैसे हिंदू समुदाय में जातिवाद के लिए एक वर्ग देता रहा है.

पूर्व के समय में भारतीय मुसलमानों की जाति व्यवस्था के वर्णन के लिए अशराफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ करता था.

जाने-माने समाजशास्त्री इम्तियाज़ अहमद ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, “अशराफ़ यानी उच्च वर्ग, जिसमें वैसे लोग शामिल हैं जिनके बाप-दादा अरब, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान से तालुक्क़ रखते थे. इनमें वो हिंदू भी शामिल हैं जो उच्च जाति के थे और उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया.”

पसमांदा

यानी अशराफ़ समुदाय सवर्ण हिंदुओं की तरह मुस्लिमों में संभ्रांत समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है. इनमें सैयद, शेख़, मुग़ल, पठान, मुस्लिम राजपूत, तागा या त्यागी मुस्लिम, चौधरी मुस्लिम, ग्रहे या गौर मुस्लिम शामिल हैं.

अजलाफ़, वो मुसलमान जो निचली हिंदू जातियों से धर्मांतरण कर मुस्लिम मज़हब में शामिल हुए थे. इसमें धोबी, दर्ज़ी, हज्जाम, बुनकर या जुलाहे, तेली, भिश्ती, रंगरेज़ शामिल थे. अजलाफ़ मुस्लिमों में अंसारी, मंसूरी, कासगर, राइन, गुजर, बुनकर, गुर्जर, घोसी, कुरैशी, इदरिसी, नाइक, फ़कीर, सैफ़ी, अलवी, सलमानी जैसी जातियां हैं.

अरज़ाल वो दलित जिन्होंने इस्लाम क़बूल किया था.

कुल संख्या

जातिगत जनगणना के नहीं होने के बाद इसपर किसी तरह का कोई आंकड़ा तो नहीं है कि पसमांदा समुदाय की संख्या कुल मुस्लिम जनसंख्या में कितनी है, लेकिन 1931 की जनगणना के आधार पर जिसमें अंतिम बार जनगणना में जाति को भी गिना गया था, पसमांदा समाज से जुड़े लोगों का दावा है कि ये संख्या 80-85 फ़ीसद तक होनी चाहिए.

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर ख़ालिद अनीस अंसारी कहते हैं कि बंटवारे के समय पलायन करनेवालों में बड़ा तबक़ा अशराफ़ मुस्लिमों का था उस हिसाब से पिछड़ों की जनसंख्या अब और बढ़ी होगी.

अंग्रेज़ी राज क़ायम होने के पहले की मुस्लिम हुकूमतों के वक़्त भी नौकरियों से लेकर, ज़मीन दिए जाने तक में कथित अशराफ़ों को तरजीह दी जाती थी.

मंडल कमीशन ने कम से कम 82 सामाजिक समूहों की पहचान की थी जिसे उसने पिछड़े मुसलमानों की श्रेणी में रखा था.

मुसलमान

नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन (एनएसएसओ) के अनुसार मुस्लिमों में ओबीसी जनसंख्या 40.7 फ़ीसद है जो कि देश के कुल पिछड़े समुदाय की तादाद का 15.7 प्रतिशत है.

सच्चर कमीशन ने कहा है कि सरकार की ओर से जो लाभ उन्हें मिलने चाहिए थे वो उन तक नहीं पहुंच पा रहे, क्योंकि जहां हिंदू पिछड़ों-दलितों को आरक्षण का लाभ है वहीं ये फ़ायदा मुस्लिम आबादी को नहीं मिल रहा है.

पसमांदा मुस्लिम महाज़ नाम की एक संस्था के भी अली अनवर कर्ता-धर्ता हैं, जिसे एक तरह का प्रेशर ग्रुप माना जा सकता है.

ये समूह दलित मुसलमानों के लिए एससी-एसटी की तर्ज़ पर आरक्षण की मांग करता रहा है.

पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व करने को लेकर दूसरे कई संगठन भी भारत के दूसरे हिस्से में काम कर रहे हैं, जैसे ऑल इंडिया बैकवॉर्ड मुस्लिम मोर्चा, पसमांदा फ्रंट, पसमांदा समाज वग़ैरह

पसमांदा मूवमेंट हालांकि नया नहीं है और इसके संदर्भ में आवाज़ें आज़ादी के पहले से भी सुनी जाती रही हैं लेकिन अब ये दक्षिण से लेकर पूर्व तक के राज्यों तक किसी न किसी शक्ल में सामने देखने में आ रहा है या कुछ जगहों पर इसकी तैयारी जारी है.

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