लाहौर हाई कोर्ट की पाँच सदस्यों की बेंच ने पंजाब सूबे के गवर्नर की उस अधिसूचना को रद्द कर दिया है, जिसके ज़रिए मुख्यमंत्री परवेज़ इलाही और उनकी कैबिनेट को पद से हटा दिया गया था.
हाई कोर्ट ने परवेज़ इलाही की कुर्सी इस शर्त पर बहाल की है कि वो अगली सुनवाई तक पंजाब की विधानसभा को भंग नहीं करेंगे.
मामले की अगली सुनवाई अब नए साल में, यानी एक जनवरी को होगी. इसका मतलब है कि पंजाब और ख़ैबर-पख़्तूनख़्वाह सूबों की विधानसभाओं के भंग होने का ख़तरा कम से कम तीन हफ़्तों के लिए तो टल गया है.
इससे पहले, इमरान ख़ान ने एलान किया था कि वो 23 दिसंबर तक दोनों सूबों की विधानसभाओं को भंग कर देंगे, ताकि वो पाकिस्तान सरकार पर वक़्त से पहले चुनाव कराने का दबाव बना सकें.
दोनों सूबों के मुख्यमंत्री 23 दिसंबर को विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश गवर्नर को भेजने वाले थे.
उससे पहले ही पंजाब में पाकिस्तान डेमोक्रेटिक एलायंस (PDM) की ओर से नियुक्त किए गए गवर्नर बलीग़-उर- रहमान ने शुक्रवार देर रात परवेज़ इलाही की हुकूमत को पद से हटाने की अधिसूचना जारी कर दी, जिससे वो विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश न कर पाएँ.
सुबह जैसे ही अदालतें खुलीं, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ ने गवर्नर की अधिसूचना को रद्द कराने के लिए लाहौर हाई कोर्ट में याचिका दाख़िल की.
इमरान की पार्टी ने अदालत से कहा कि गवर्नर ने ये अधिसूचना जारी करके क़ानून के तहत तय पैमानों के ख़िलाफ़ जाकर काम किया है.
शहबाज़ शरीफ़ की अगुआई वाली गठबंधन सरकार को लगता है कि दो सूबों की विधानसभाएं भंग हुईं, तो मुल्क में एक संवैधानिक संकट पैदा हो जाएगा.
फिर उन्हें पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की जल्दी चुनाव कराने की मांग के आगे झुकना पड़ेगा.
पीडीएम वक़्त से पहले चुनाव कराने से बचने की कोशिश में है, क्योंकि उसे पता है कि चुनाव के नतीजे इमरान ख़ान के हक़ में जा सकते हैं.
इसकी वजह भी साफ़ है. इस साल अप्रैल में सत्ता से हटाए जाने के बाद से ही इमरान ख़ान की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है.
पाकिस्तान के अपने इतिहास के पैमानों से भी देखें तो, मुल्क में सियासी उठा-पटक के लिहाज़ से 2022 का साल अपवाद साबित हुआ है.
बहुत से जानकारों का मानना है कि मौजूदा संकट का आग़ाज़ इस साल जनवरी में ही हो गया था, जब उस वक़्त विपक्ष में रहे और अब हुकूमत चला रहे पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट ने इमरान ख़ान की सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया था.
उस वक़्त इमरान ख़ान को सत्ता में आए हुए चार बरस भी पूरे नहीं हुए थे.
अपने ताज़ा वीडियो ब्लॉग (व्लॉग) में पाकिस्तान के मशहूर खोजी पत्रकार उमर चीमा ने दावा किया कि ये वही समय था जब पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने इमरान ख़ान से दोबारा ये गुज़ारिश की थी कि वो, पंजाब के उस वक़्त के वज़ीर-ए-आला उस्मान बुज़दार को पद से हटा दें.
जनरल बाजवा, उस्मान बुज़दार हुकूमत के काम-काज से ख़ुश नहीं थे. बाजवा काफ़ी समय से इमरान ख़ान से कह रहे थे कि वो पंजाब सूबे का मुखिया बदल दें.
लेकिन, जब इस साल जनवरी में भी इमरान ख़ान ने जनरल बाजवा के मशविरे की अनदेखी कर दी, तो उससे घटनाक्रमों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो आख़िरकार इमरान ख़ान को वज़ीर-ए-आज़म की कुर्सी से हटाने पर जाकर ख़त्म हुआ.
इमरान ख़ान, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए सत्ता से हटाया गया.
ये वही समय था, जब इमरान हुकूमत और पाकिस्तानी फ़ौज के रिश्तों में ज़बरदस्त तनाव चल रहा था.
इस टकराव की शुरुआत पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी ISI के मुखिया, लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद की नई पोस्टिंग से हुई थी.
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फ़ौज से टकराव क्यों हुआ?
इमरान ख़ान चाहते थे कि जनरल फ़ैज़ हमीद आईएसआई के डायरेक्टर जनरल बने रहें. लेकिन, फ़ौज ये चाहती थी कि फ़ैज़ हमीद, पेशावर में कोर की कमान संभालें.
पाकिस्तान में आर्मी चीफ बनने के लिए कोर की कमान संभालने का तजुर्बा होना अनिवार्य है.
इस मसले पर इमरान हुकूमत और पाकिस्तानी फ़ौज़ के बीच का टकराव नवंबर 2021 में खुलकर उजागर हो गया था.
ये बड़ा अजीब था, क्योंकि इमरान ख़ान और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा, बरसों से ये दावा करते आए थे कि दोनों के बीच आम सहमति है.
पाकिस्तान के बहुत से जानकार ये तर्क देते हैं कि जनरल फ़ैज़ हमीद की नियुक्ति को लेकर हुआ ये टकराव, इमरान ख़ान और जनरल बाजवा के ख़ुशनुमा रिश्तों के ताबूत में आख़िरी कील साबित हुआ था.
उसके बाद से ही इमरान ख़ान के हाथ से फ़ौज का समर्थन निकलने लगा था.
साल 2022 की शुरुआत कुछ इसी तरह हुई थी, जब इमरान ख़ान और फ़ौज के बीच दूरियाँ बढ़ रही थी. इसी दौरान, पाकिस्तान जम्हूरी आंदोलन की गतिविधियाँ भी तेज़ हो गई थीं.
पीडीएम इमरान ख़ान विरोधी क़रीब दर्जन भर पार्टियों का गठबंधन है, जिसमें पाकिस्तान के दो बड़े सियासी दल, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी शामिल हैं.
पर्दे के पीछे जोड़ तोड़ शुरू हो चुकी थी. सांसदों से संपर्क किया जा रहा था.
विपक्षी ख़ेमे की बातचीत के दौरान उन तमाम संवैधानिक विकल्पों पर चर्चा हो रही थी, जिसके ज़रिए इमरान ख़ान की हुकूमत को सत्ता से हटाया जा सके.
क्योंकि विपक्षी दलों को मालूम था कि उन्हें फ़ौज का समर्थन हासिल नहीं है. ख़ुद इमरान ख़ान के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता भी फ़ौज की मदद से ही खुला था.
ज़ाहिर तौर पर पाकिस्तानी फ़ौज ने कहा कि उसने सलाह मशविरे के लंबे दौर के बाद फ़रवरी महीने में ये तय किया कि वो इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे सियासी तूफ़ान से उन्हें नहीं बचाएगी. सियासत में दख़लंदाज़ी नहीं करेगी.
लेकिन, जब ख़ुद फ़ौज के भीतर पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ माहौल बनने लगा, तो इमरान के सत्ताधारी गठबंधन के दो साझीदारों ने उनका साथ छोड़ दिया.
इसी के साथ नेशनल असेंबली में इमरान ख़ान के हाथ से मामूली बहुमत भी निकल गया. इमरान ख़ान के विरोधियों का दावा था कि उनके लिए इस बहुमत का जुगाड़ भी फ़ौज ने ही किया था.
क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान ख़ान की सरकार के ख़िलाफ़ इसी माहौल में मार्च 2022 में नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया.
कई हफ़्तों तक दिल की धड़कनें रोक देने वाली सियासी नौटंकी चलती रही.
आख़िरकार 10 अप्रैल को जाकर इमरान ख़ान को उस वक़्त सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया, जब अवामी असेंबली में उन्होंने संसद सदस्यों के बीच बहुमत गँवा दिया.
इसके बाद, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ के नेता शहबाज़ शरीफ़, पीडीएम के वोट और समर्थन से प्रधानमंत्री बने.
साज़िश का आरोप
इमरान ख़ान को दीवार पर लिखी इबारत साफ़ दिख रही थी. उन्हें ये अंदाज़ा तो हो गया था कि फ़ौज के साथ उनका ताल्लुक़ अब पूरी तरह टूट गया है.
फिर भी, इमरान अब ये दावा करने लगे कि उन्हें तो एक अंतरराष्ट्रीय साज़िश के तहत हुकूमत से बेदख़ल किया गया.
इमरान ने एक रैली में काग़ज़ का एक टुकड़ा लहराते हुए दावा किया कि वो कोई बेबुनियाद इल्ज़ाम नहीं लगा रहे हैं. उनके पास इस बात का पक्का सबूत है कि उनकी हुकूमत को गिराने की साज़िश अमरीका ने रची थी.
इमरान ने अपने समर्थकों को बताया कि अमरीका उनसे इसलिए ख़फ़ा था कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य अभियान चलाने के लिए उसे पाकिस्तान के फ़ौजी अड्डे देने से मनाकर दिया था.
इमरान ने ये दावा भी किया कि अमरीका और दूसरे पश्चिमी मुल्क उनसे इस बात से भी नाराज़ थे कि जब व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन पर हमला किया, तो भी वो अपने पहले से तय कार्यक्रम के तहत रूस के दौरे पर चले गए थे.
इमरान ने कहा कि, ‘हुकूमत की तब्दीली’ का षडयंत्र इसलिए रचा गया, ताकि उन्हें पाकिस्तान की आज़ाद विदेश नीति पर चलने और अमरीका का हुक्म न मानने की सज़ा दी जा सके.
चूंकि पाकिस्तान में ऐतिहासिक रूप से अवाम के जज़्बात अमरीका विरोधी रहे हैं, तो इमरान के इन दावों पर जनता ने तुरंत यक़ीन कर लिया.
इमरान ख़ान इन आरोपों के ज़रिए अपनी गिरती हुई साख संभलाने में कामयाब हो गए.
ध्रुवीकरण
जैसे ही इमरान ख़ान को ये अहसास हुआ कि वो अब सत्ता में नहीं बने रह सकते, तो उन्होंने इस मौक़े का तुरंत फ़ायदा उठाया और अवाम का समर्थन दोबारा हासिल करने की पुरज़ोर कोशिशों में जुट गए.
हुकूमत में रहते हुए, भयंकर महंगाई और आर्थिक मुसीबतों के चलते, इमरान ख़ान से जनता बहुत नाराज़ थी.
लेकिन, सत्ता से हटते ही इमरान ने पूरे मुल्क में बड़ी बड़ी रैलियां कीं. जनता की अदालत में अपना पक्ष रखा.
पीडीएम की नई हुकूमत न तो उम्मीद के मुताबिक़ अच्छा काम कर पा रही थी और न ही वो मुल्क की माली हालत सुधार पा रही थी.
इससे इमरान ख़ान का काम और भी आसान हो गया. जनता की नज़र में नई सरकार का किरदार ख़राब करने के लिए इमरान ने उसे ‘इम्पोर्टेड हुकूमत’ कहना शुरू कर दिया.
सत्ता में आने के तुरंत बाद पीडीएम की अगुवाई वाली सरकार ने, जवाबदेही तय करने वाले उन क़ानूनी बदलावों को पलटना शुरू कर दिया, जिन्हें इमरान ख़ान ने बेहद सख़्त बना दिया था.
नई हुकूमत का ये क़दम सियासी तौर पर नुक़सानदेह साबित हुआ और इमरान ख़ान ने इसे भी ख़ूब भुनाया. वो पीडीएम के भ्रष्टाचारी होने का माहौल बनाने में कामयाब रहे.
इमरान ख़ान जनता को ये यक़ीन दिलाने में सफल रहे कि उन्हें सत्ता से इसीलिए हटाया गया, क्योंकि वो भ्रष्ट सियासतदानों की जवाबदेही तय कर रहे थे.
इमरान ने वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ को ‘क्राइम मिनिस्टर’ और पीडीएम को ‘भ्रष्टाचार का माफ़िया’ कहने लगे.
अप्रैल और मई महीने में जब पाकिस्तान में भयंकर गर्मी पड़ रही थी. पारा रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था, तो भयंकर बिजली कटौती की जाने लगी, क्योंकि दुनिया में तरल प्राकृतिक गैस की क़िल्लत हो गई थी.
पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ की सत्ता में वापसी के साथ ही लंबे लंबे दौर की इस बिजली कटौती ने अवाम के ग़ुस्से को और भड़का दिया.
इमरान ख़ान ने इस मौक़े को भी भुनाया और इसे ‘इम्पोर्टेड सरकार’ की एक और नाकामी बताया.
इमरान के इन दावों पर जनता आंख मूंदकर भरोसा कर रही थी, और ख़ास तौर से नौजवान शहरी मध्यम वर्ग के बीच उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ चढ़ता ही जा रहा था.
आख़िरकार कई हफ़्तों तक जन समर्थन जुटाने और भयंकर ध्रुवीकरण के बीच इमरान ख़ान ने अपने समर्थकों से कहा कि वो 25 मई को इस्लामाबाद की ओर कूच करें, ताकि जल्दी से जल्दी पारदर्शी तरीक़े से चुनाव कराए जा सकें.
लेकिन इमरान ख़ान, सरकार पर दबाव बनाने के लिए उम्मीद के मुताबिक़, लोगों की भीड़ नहीं जुटा पाए.
इसकी तमाम वजहें रहीं. जैसे कि भयंकर गर्मी, ठीक से योजना बनाने में नाकामी और पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे पंजाब में क़ानून और व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियों की सख़्ती.
इमरान ख़ान का पहला लॉन्ग मार्च नाकाम रहा. लेकिन, तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखने की क़सम खाई.
आर्थिक उठा-पटक
सत्ता से हटने से पहले इमरान ख़ान ने ईंधन की क़ीमतों में ऐसी बेहिसाब रियायतों का एलान किया था, जिनकी इजाज़त पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति नहीं देती थी.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से क़र्ज़ की योजना दोबारा शुरू करने के लिए, ईंधन पर दी जाने वाली ये सब्सिडी हटानी ज़रूरी थी. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मिलने वाली मदद को, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की लाइफलाइन कहा जाता है.
अब शहबाज़ शरीफ़ सरकार सब्सिडी हटाने का ये फ़ैसला लेने में हिचक रही थी, क्योंकि सत्ता में आने के तुरंत बाद सब्सिडी वापस लेने का मतलब था, जनता का ग़ुस्सा भड़काना.
भयंकर गर्मी और बिजली की कटौती से पाकिस्तान के उद्योग धंधों को पहले ही काफ़ी नुक़सान हो रहा था.
ऐसे में पीडीएम को बख़ूबी अंदाज़ा था कि अगर उसने ईंधन पर सब्सिडी को वापस लिया, तो वो आग और भी भड़क उठेगी, जो इमरान ख़ान ने पूरे मुल्क में लगा रखी थी.
लेकिन, सब्सिडी जारी रखकर पीडीएम की हुकूमत, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की वो शर्त पूरी नहीं कर पा रही थी, जिसे मानने पर ही क़र्ज़ की अगली किस्त जारी होती.
शहबाज़ सरकार सब्सिडी हटाने का फ़ैसला तब तक टालते रही, जब तक ऐसा कर पाना मुमकिन रहा.
भले ही इससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को भारी नुक़सान पहुंचा और वो तय समय पर क़र्ज़ चुका पाने में नाकामी (डिफॉल्ट) के मुहाने पर नहीं पहुंच गया.
शहबाज़ शरीफ़ सरकार, नई शर्तों पर क़र्ज़ लेने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कई महीनों तक मोल-भाव करती रही. मुल्क की अर्थव्यवस्था के लिए ये क़दम तबाही वाला साबित हुआ.
जब देश की अर्थव्यवस्था डूब रही थी, तो इमरान ख़ान पीडीएम सरकार की घेरेबंदी में जुटे थे.
उन्होंने अपने समर्थकों को ये यक़ीन दिला दिया था कि पीडीएम ने, उनकी हुकूमत के नाकारा होने के जो इल्ज़ाम लगाए थे, वो सरासर झूठ थे.
इमरान ने ये दावा भी किया कि पीडीएम की हुकूमत सत्ता में इसलिए आई, जिससे ख़ुद को क़ानूनी और वित्तीय ‘रियायतें’ दे सके. उसका मक़सद कभी भी पाकिस्तान के अवाम को राहत देना नहीं था.
जनता को इमरान की ये बात ख़ूब पसंद आई और इसका असर पंजाब में हुए उप-चुनाव के नतीजों पर भी दिखा, जब तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने 20 में से 15 सीटें जीत लीं.
इनमें से कुछ सीटें तो परंपरागत रूप से नवाज़ शरीफ़ की पार्टी का गढ़ मानी जाती थीं
संस्थानों के साथ टकराव
इसी दौरान इमरान ख़ान ने पाकिस्तानी फ़ौज पर भी हमले तेज़ कर दिए.
उनके समर्थकों ने पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा के ख़िलाफ़ अभियान चलाया.
बाजवा पर इमरान ख़ान को सत्ता से बेदख़ल करने का इल्ज़ाम लगाया. तहरीक-ए-इंसाफ के मुखिया खुलकर पाकिस्तानी फ़ौज से अपना साथ देने की मांग कर रहे थे.
लेकिन, उनके आरोपों की बौछार ने फ़ौज को उनसे और दूर कर दिया.
इमरान ख़ान आर्मी के अफ़सरों के नाम लेकर आरोप लगाने लगे.
इसी माहौल में अगस्त महीने में इमरान ख़ान के बेहद क़रीबी नेता शहबाज़ गिल को इस्लामाबाद पुलिस ने राजद्रोह के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया.
शहबाज़ गिल पर आरोप लगाया गया कि वो फ़ौज के भीतर बग़ावत को भड़का रहे थे.
शहबाज़ गिल की गिरफ़्तारी से इमरान ख़ान इस क़दर भड़के कि उन्होंने एक जनसभा में इस्लामाबाद पुलिस के मुखिया और शहबाज़ गिल को पुलिस हिरासत में भेजने वाली महिला जज तक को भयंकर अंजाम भुगतने की धमकी दे डाली.
इस रैली के बाद इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ आतंकवाद के आरोपों में केस दर्ज किया गया.
सितंबर में अपनी एक तक़रीर में इमरान ख़ान ने चुनाव आयुक्त पर पक्षपात करने का आरोप लगाया. मुल्क की सारी प्रमुख संस्थाओं पर तीखे हमले करके पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने लिए एक साथ कई मोर्चे खोल लिए.
उसके बाद के हफ़्तों में इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अवमानना की कई नोटिसें जारी की गईं.
अक्तूबर महीने में पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने इमरान ख़ान को तोशाखाना मामले में चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया.
चुनाव आयोग ने कहा कि प्रधानमंत्री रहते हुए इमरान ख़ान को विदेशी मेहमानों से जो तोहफ़े मिले थे, उन्हें लेकर उन्होंने अधिकारियों से झूठ बोला.
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ पूरे देश में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए. चुनाव आयोग के इस फ़ैसले को इमरान ख़ान को ‘तकनीकी आधार पर चुनावी राजनीति के मैदान से बाहर करने’ की कोशिश के तौर पर देखा गया.
इसके बाद इमरान ख़ान की बातचीत के ऑडियो टेप लीक हो गए, जिसमें वो ये चर्चा करते सुने गए कि सिफर का ‘इस्तेमाल’ कैसे किया जाए.
ये टेप बातचीत लीक होने से इमरान ख़ान के उस दावे पर सवाल उठने लगे कि उन्हें अमरीकी साज़िश के तहत सत्ता से हटाया गया. लेकिन, इमरान के समर्थकों ने इस बात को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी.
सेनाध्यक्ष की नियुक्ति
चूंकि नवंबर का महीना क़रीब था, तो इमरान ख़ान ने अपनी रैलियों में नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति का मुद्दा उठाना शुरू कर दिया.
जनरल बाजवा, जिन पर इमरान ख़ान को सत्ता में लाने का इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है, वो रिटायर होने जा रहे थे.
सियासी मामलों के जानकारों का ये कहना था कि इमरान ख़ान, अपनी पसंद के आदमी को सेनाध्यक्ष बनाना चाहते थे.
लेकिन चूंकि, आर्मी चीफ की नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार, पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म के पास है, तो इमरान ख़ान चाहकर भी इसमें कोई भूमिका निभाने की हैसियत में नहीं थे.
इसके बावुजूद, तहरीक़-ए-इंसाफ़ समर्थक सोशल मीडिया यूज़र्स, नए सेनाध्यक्ष के लिए अपने पसंदीदा उम्मीदवार की शान में क़सीदे पढ़ रहे थे और बाक़ी जनरलों की छवि ख़राब करने की कोशिश में जुटे थे.
पत्रकारों के साथ बातचीत में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने दावा किया कि इमरान ख़ान ने किसी के ज़रिए उनसे संपर्क साधा था और ये कहा था कि वो उनसे सलाह-मशविरा करके फ़ौज का नया मुखिया चुनें.
प्रधानमंत्री ने बताया कि उन्होंने इमरान का ये प्रस्ताव ठुकरा दिया था.
दूसरा लॉन्ग मार्च
इमरान ख़ान और उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं के ख़िलाफ़ मुक़दमों का अंबार लग गया था. इसी बीच अक्तूबर महीने के आख़िरी हफ़्ते में कीनिया में तहरीक-ए-इंसाफ समर्थक पत्रकार अरशद शरीफ़ की हत्या हो गई.
इसके बाद, इमरान ख़ान ने दूसरे इस्लामाबाद लॉन्ग मार्च का एलान कर दिया.
इमरान ने अपने समर्थकों से कहा कि वो ‘हक़ीक़ी आज़ादी’ हासिल करने के लिए पंजाब की राजधानी लाहौर से इस्लामाबाद के लिए कूच करें.
तीन नवंबर को जब इमरान ख़ान का क़ाफ़िला, पंजाब के वज़ीराबाद पहुँचा, तो उस पर हमला हुआ.
इमरान ख़ान को पैर में चोटें आईं. इमरान ख़ान पर हुए इस हमले ने सियासी माहौल पूरी तरह बदल दिया.
अगले दिन, हमले के बाद शौकत ख़ानम अस्पताल से अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में इमरान ख़ान ने सुरक्षा तंत्र पर अपने हमले और तीखे कर दिए.
उन्होंने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और आईएसआई के काउंटर इंटेलिजेंस विभाग के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैसल नसीर पर अपनी हत्या की साज़िश रचने का इल्ज़ाम लगाया.
हालांकि वो अपने इस दावे को साबित करने के लिए कोई सबूत पेश कर पाने में नाकाम रहे. इमरान ख़ान के आरोपों ने पाकिस्तान को जुनून के एक नाज़ुक मोड़ पर ला खड़ा किया. मुल्क के सारे संस्थानों पर दबाव बढ़ गया था.
इस सियासी तूफ़ान के बावुजूद, कई दिनों की खींच-तान के बाद भी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ उन तीन अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराने में नाकाम रही, जिन पर इमरान ख़ान ने अपनी हत्या की साज़िश का आरोप लगाया था.
इमरान ख़ान ने लॉन्ग मार्च जारी रखने का फ़ैसला किया. अपनी चोट के चलते वो ख़ुद को इसमें शामिल नहीं हो पा रहे थे.
लेकिन, जब तहरीक-ए-इंसाफ़ का ये काफ़िला अपनी मंज़िल यानी रावलपिंडी की ओर बढ़ चला, तो इमरान वर्चुअल तक़रीरों के ज़रिए अपने समर्थकों से मुख़ातिब होते रहे.
नवंबर महीने के आख़िर में सरकार ने इमरान ख़ान की बात को तवज्जो दिए बग़ैर नए आर्मी चीफ की नियुक्ति कर दी.
26 नवंबर को इमरान ख़ान रावलपिंडी में अपनी पार्टी के लॉन्ग मार्च में शामिल हुए. लेकिन, जिस वक़्त सियासी मामलों के जानकार ये अंदाज़ा लगा रहे थे कि इमरान ख़ान, सड़कों पर चलाई जा रही अपनी मुहिम को नए मकाम पर ले जाने वाले हैं, ठीक उसी वक़्त इमरान ने एक और सियासी दांव चल दिया.
इमरान ख़ान ने कहा कि उनकी पार्टी के विधायक, पंजाब और ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा की विधानसभाओं से इस्तीफ़ा देंगे. इमरान ख़ान की सिर्फ़ एक मांग थी कि जल्दी से जल्दी चुनाव कराए जाएं.
हालांकि सरकार ने साफ़ कर दिया था कि वो इमरान की मांगों पर तब तक ग़ौर नहीं करेगी, जब तक इमरान अपने बात करने का लहज़ा दुरुस्त नहीं करते और बिना किसी शर्त के मानीख़ेज़ सियासी संवाद के लिए राज़ी नहीं हो जाते.
हालांकि, इमरान ख़ान हमेशा से अपने सियासी विरोधियों को डाकू और लुटेरे कहकर उनसे किसी तरह की बातचीत का विरोध करते रहे हैं
लटकाने के नुस्खे
इसके बाद भी पर्दे के पीछे बातचीत हुई. पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेता रह चुके, राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी, और पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता और वित्त मंत्री इशाक़ डार के बीच कई मुलाक़ातें हुईं.
लेकिन दोनों ही दल अपनी बात से पीछे हटने को राज़ी नहीं हुए.
जहां तक इमरान ख़ान की पार्टी का सवाल है, तो वो अवामी असेंबली भंग करने की ज़िद पर अड़ी हुई है.
वहीं, पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट अटकाने और लटकाने की रणनीति पर चल रहा है. इस टकराव ने पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे पंजाब में एक संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है, जहाँ हुकूमत का काम पूरी तरह से ठप पड़ गया है.
इमरान ख़ान कहते हैं कि पीडीएम, चुनाव से डरता है और इससे भाग रहा है, क्योंकि उसे पता है कि चुनाव हुए, तो तहरीक-ए-इंसाफ को अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल हो जाएगा.
वहीं, पाकिस्तान जम्हूरी इत्तेहाद इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि मौजूदा विधानसभाएँ अपना कार्यकाल पूरा करेंगी, और वक़्त से पहले चुनाव का इमरान ख़ान का ख़्वाब कभी पूरा नहीं होगा. चुनाव अक्तूबर 2023 में होने हैं.
इस बीच पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है, जिससे आम लोगों की ज़िंदगी मुश्किल में है. आसमान छूती महंगाई और सिमटते कारोबार के चलते अवाम के लिए अपना रोज़मर्रा का ख़र्च पूरा कर पाना दुश्वार हो रहा है.
REPORTED BY DY.EDITOR, SACHIN RAI, GONDWANANEWSLAND.COM 8982355810