Reported By Dy. Editor, SACHIN RAI, 8982355810
फ़िल्म में जेल का एक सीन- एक क़ैदी है जिस पर क़त्ल का इल्ज़ाम है और एक पुलिस अफ़सर है जो जेल में उससे बात करने आया है.
पुलिस अफ़सर- विजय ये मत भूलो कि मैं यहाँ तुम्हारे बाप की हैसियत से नहीं, पुलिस ऑफ़िसर की हैसियत से बात कर रहा हूँ.
विजय- कौन-सी नई बात है. आपने मुझसे हमेशा एक पुलिस ऑफ़िसर की हैसियत से ही बात की है.
पुलिस अफ़सर- देखो विजय अगर तुम्हें मुझसे कोई गिला है कोई शिकायत है, वो ग़लत है, सही है, वो अपनी जगह है. लेकिन यहाँ तुम्हें भूल जाना चाहिए कि तुम मेरे बेटे हो.
पुसिल वर्दी की गरिमा और सीमाएँ समझाता एक बाप और जेल में बेक़सूर बेटे के कटाक्ष के पीछा छिपा कड़वापन, ये बताने के लिए काफ़ी है कि दोनों के बीच किस क़दर दूरियाँ हैं.
जब एक अक्टूबर 1982 को निर्देशक रमेश सिप्पी की फ़िल्म शक्ति रिलीज़ हुई और इसमें पुलिस अधिकारी के रोल में दिलीप कुमार और उनके बेटे के रूप में अमिताभ बच्चन को लोगों ने देखा तो ये किसी तहलके से कम नहीं था.
ये वो दौर था जब ज़ंजीर, शोले और दीवार जैसी दमदार फ़िल्मों के बाद सुपरस्टार के तौर पर अमिताभ बच्चन का जलवा था. दिलीप कुमार अपने करियर की दूसरी पारी में नए दमदार किरदारों की तलाश में थे. ऐसे में दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन का आमने सामने होना, अपने आप में एक ख़बर थी.
शक्ति बाप-बेटे की कहानी है जिनके बीच ग़लतफ़हमियों, नाइत्तेफ़ाक़ी, ख़ामोशियों और दूरियों की ऐसी गहरी खाई थी जो त्रासदी बनकर पूरे परिवार को ज़हनी तौर पर तोड़ कर रख देती है.
इस अलगाव की बड़ी वजह होती है बचपन की एक घटना -पुलिस अधिकारी अश्विनी कुमार (दिलीप कुमार) और उनकी पत्नी राखी (शीतल) अपने बेटे विजय (यानी अमिताभ बच्चन) के साथ हँसी ख़ुशी रहते हैं.
बचपन में एक बार स्मगलर जेके (अमरीश पुरी) के गुंडे विजय को उठाकर ले जाते हैं और दिलीप कुमार के सामने शर्त रखते हैं कि वो उनके साथी को जेल से छोड़ दे वरना विजय यानी अमिताभ को मार देंगे.
फ़ोन पर डरा हुआ बच्चा पिता से बचाने की गुहार लगाता है. लेकिन फ़र्ज़ की राह पर डटे पुलिस अधिकारी (दिलीप कुमार) कहते हैं कि वो क़ैदी को रिहा नहीं करेंगें. हालांकि फ़ोन टैप करने के बाद दिलीप कुमार वहाँ पहुँच जाते हैं और इस बीच विजय भी वहाँ से भाग निकलता है जिसमें एक गुंडा ही उसकी मदद करता है.
बचपन की ये घटना मनोवैज्ञानिक स्तर पर विजय के मन में ऐसा घर कर जाती है कि वो पिता से बेज़ार और कटा हुआ रहने लगता है और बड़े होकर ये खाई बढ़ती ही जाती है.
अमिताभ नहीं राज बब्बर थे पहली पसंद
वैसे फ़िल्म शक्ति के किरदार कैसे चुने गए इसकी भी दिलचस्प कहानी है. डीसीपी के दमदार रोल के लिए दिलीप कुमार हमेशा से ही पहली पसंद थे. चूँकि दिलीप कुमार का रोल युवा हीरो के मुक़ाबले ज़्यादा सशक्त माना जा रहा था, इसलिए इगो क्लैश न हो इसलिए नए हीरो की तलाश शुरु हुई.
2015 में फ़िल्मफ़ेयर को दिए इंटरव्यू में रमेश सिप्पी बताते हैं, “हमने एक नए हीरो का ऑडिशन तो ले लिया लेकिन वो इंटेन्सिटी कहाँ से लाते. इस बीच अमिताभ को पता चला कि हमें इस तरह के किरदार की तलाश है और उन्होंने पूछा कि मुझे क्यों नहीं लिया गया. मैंने अमिताभ को साफ़ बता दिया कि आपका रोल सीधा-सा है. उसमें लार्जर दैन लाइफ़ की गुंजाइश नहीं है. उन्हें दिलीप कुमार के साथ काम करने का आइडिया बहुत पंसद आया. उन्हें ख़ुद पर विश्वास था. राखी को अमिताभ की माँ का रोल करने के लिए मनाना पड़ा. मैंने उनसे कहा कि दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौक़ा फिर कहाँ मिलेगा.”
वो रोल दरअसल शुरु में राज बब्बर को दिया गया था. लेकिन दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौक़ा मिला अमिताभ बच्चन को.
फ़िल्म शक्ति को याद करते हुए फ़िल्म समीक्षक रामचंद्रन श्रीनिवासन बताते हैं, “ये फ़िल्म 1977 में लॉन्च हुई थी. सीन वो था जब अमिताभ बच्चन चॉपर से उतरते हैं और दिलीप कुमार से मिलते हैं. लेकिन रमेश सिप्पी को पहले फ़िल्म शान पूरी करनी थी इसलिए शक्ति को टाल दिया गया. नीतू कपूर हीरोइन थीं लेकिन चूँकि फ़िल्म टल गई तो शक्ति में स्मिता पाटिल को लिया गया क्योंकि नीतू सिंह ने काम करना छोड़ दिया था.”
वो बताते हैं, “एक किस्सा ये भी है कि दिलीप कुमार चाहते थे कि अमिताभ उनके भाई के रोल में हों लेकिन सलीम जावेद ने मनाया कि अमिताभ का बेटा होना ही अहम है और मुझे ये भी चित्रण बहुत पसंद आया. अमिताभ को गोली मारने के बाद जब दिलीप कुमार ख़ामोश खड़े हैं वो ख़ामोशी बहुत कुछ कह जाती है. बहुत उम्दा सीन है. वहाँ ड्रैमेटिक होने का ख़तरा था लेकिन दिलीप कुमार ने बख़ूबी निभाया.”
जब अमिताभ को नहीं मिला था दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ़
अमिताभ बच्चन के लिए दिलीप कुमार क्या मायने रखते थे ये बात उन्होंने अपने ब्लॉग में साझा की है.
वो लिखते हैं, “जब मैं छोटा था तो किसी रेस्त्रां में हमें दिलीप कुमार दिख गए. मैंने हिम्मत करके उनसे ऑटोग्राफ़ माँगने का सोचा. मैं उत्साह से कांप रहा था. लेकिन मेरे पास ऑटोग्राफ़ बुक नहीं थी. मैं दौड़ कर गया और ऑटोग्राफ़ बुक लेकर आया और राहत की साँस ली कि वे रेस्त्रां में ही थे. वो बातचीत में पूरी तरह मगन थे. मैंने उनसे कुछ कहा और बुक आगे बढ़ा दी. उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी. उन्होंने मेरी तरफ़ या मेरी बुक की तरफ़ देखा नहीं. थोड़ी देर बाद वो चले गए. मैं ऑटोग्राफ़ बुक हाथ में लेकर खड़ा रहा. लेकिन वो ऑटोग्राफ़ अहम नहीं था. अहम थी उनकी मौजूदगी.”
शोले की शैली से एकदम अलग फ़िल्म शक्ति में न तो मनोरंजक पंच लाइन हैं, न कॉमेडी, न भरा पूरा रोमांस और न वैसे डायलॉग.
शक्ति में एक तरफ़ पुलिस अफ़सर दिलीप कुमार हैं जो फ़र्ज़ की राह में हद से भी आगे जाकर डटे रहते हैं. उनका एक डायलॉग है, ‘अब फ़र्ज़ निभाने की आदत-सी हो गई है. इस सबमें बेटा कब पीछे छूट जाता है उसे ख़ुद भी पता भी नहीं चलता.’
दूसरी ओर बेटा विजय यानी अमिताभ बच्चन अपने अंदर की चोट और पिता के प्रति बग़ावत को ही अपना मक़सद मान चुका है. वो शब्दों से कुछ नहीं कहता लेकिन अपनी ख़ामोशी से सब कुछ कह जाता है. अंग्रेज़ी में जिसे ब्रूडिंग इंटेन्सिटी कहते हैं, वो अमिताभ की ख़ासियत है इस रोल में.
एक दिन ऐसा भी आता है जब स्मगलर गैंग में शामिल होने के बाद बेटा ख़ुद को पुलिस की वर्दी पहने बाप के सामने खड़ा पाता है और बीच में है क़ानून की ज़ंजीर. क़ानून के प्रति फ़र्ज़ को लेकर पिता में जो जुनून है वो बेटे और बाप के बीच दीवार बन चुका है.
सलीम जावेद का बेहतरीन स्क्रीनप्ले
इसे फ़िल्म की कामयाबी ही कहा जाएगा कि दर्शक के तौर पर आप ये फ़ैसला ही नहीं कर पाते कि कौन सही है और कौन ग़लत, कोई ग़लत है भी या नहीं. सही और ग़लत के बीच का जो स्याह रास्ता होता है उसी रास्ते पर चलती है ये फ़िल्म.
स्क्रीनप्ले के हिसाब से सलीम-जावेद की सबसे बेहतर पटकथाओं में से एक मानी जाती है शक्ति. दो लोगों के रिश्तों के टकराव को दिखाती इतनी कसी हुई कहानी कि फ़िल्म की शुरुआत में ही ये जानते हुए भी कि फ़िल्म का अंत क्या होगा, आप आख़िर तक बंधे रहते हैं.
ख़ासकर वो तमाम सीन जहाँ दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन आमने-सामने होते हैं. पूरी फ़िल्म में बाप और बेटे का टकराव जिस तरह संवादों में उतारा गया है वो भी अपना असर छोड़ जाता है. और उनके बीच की ख़ामोशी भी.
फ़िल्म समीक्षक रामचंद्रन श्रीनिवासन कहते हैं, “दर्शकों को सिनेमाहॉल तक लाने के लिए उन दिनों सलीम जावेद का स्क्रीनप्ले बड़ा रोल अदा करता था. उनकी सृजनात्मकता ने कई कलाकारों और फ़िल्मकारों की किस्मत बदल दी. ‘एंग्री यंग मैन’ उनकी ही देन है. एंग्री यंग मैन वाली छवि को सलीम जावेद ने इस फ़िल्म में आगे बढ़ाया. स्क्रीनप्ले इतना कसा हुआ है कि ऐसा लगता है कि अगर सलीम जावेद की कहानी नहीं होती तो ये फ़िल्म काम ही नहीं करती. शक्ति की ही तरह शहरी परिवेश में बनी रमेश सिप्पी की फ़िल्म शान नहीं चली थी. लेकिन रमेश सिप्पी ने शक्ति बनाई क्योंकि इसका स्क्रीनप्ले सही और कमाल का था.”
फ़िल्म का एक सीन ख़ासतौर दिल को छूने वाला है. राखी यानी अमिताभ की माँ और दिलीप कुमार की पत्नी की मौत हो जाती है. उस वक़्त अमिताभ जेल में होते हैं जिसे ख़ुद उनके पिता डीसीपी अश्विनी कुमार (दिलीप कुमार) ने ही गिरफ़्तार किया होता है.
माँ के अंतिम दर्शन के लिए जब अमिताभ जेल से कुछ देर के लिए आते हैं तो कोने में फ़र्श पर बैठे टूट चुके पिता को देखते हैं. अमिताभ उनके पास जाकर ज़मीन पर बैठते हैं, दोनों के बीच कोई बात नहीं होती.
अमिताभ बस धीमे से अपना हाथ उनके बाज़ू पर रख देते हैं. जिस तरह के कैमरा एंगल से सीन फ़िल्माया गया है, दोनों की नज़रें तक मिलती हैं, जब एक की नज़र उठती है तो दूसरी की झुकी रहती है. कोई कुछ नहीं कहता, फिर भी दोनों एक दूसरे से सबकुछ कह जाते हैं. ग़म और मौत के उस पल में जैसे कुछ देर के लिए दोनों एक हो गए थे. इस सीन को देखकर लगता है कि वाक़ई आप दो दिग्गज कलाकारों को एक साथ देख रहे हैं.
अमिताभ की रिहर्सल के लिए चिल्ला पड़े थे दिलीप कुमार
दिलीप कुमार के साथ काम करने के अनुभव के बारे में अमिताभ ने लिखा था, “शक्ति में मुझे दिलीप कुमार के साथ काम करने का पहली बार मौक़ा मिला, वो कलाकार जो मेरा आदर्श रहा था. फ़िल्म के आख़िर में मेरी मौत का सीन था जो मुंबई एयरपोर्ट के अंदर फ़िल्माया गया था. तब उसे सहार एयरपोर्ट कहते थे. हमें ख़ास अनुमति मिली थी. जब मैं मौत वाले सीन की अकेले ही रिहर्सल कर रहा था, तब प्रोडक्शन और क्रू की ओर से बहुत शोर हो रहा था.”
“उस वक़्त दिलीप कुमार रिहर्सल नहीं कर रहे थे. लेकिन शोर सुनकर वो अचानक चिल्लाए और ज़ोर से सबको चुप रहने के लिए कहा. उन्होंने कहा था कि जब कोई कलाकार रिहर्सल कर रहा हो तो उस पल की अहमियत समझनी चाहिए और उस स्पेस की इज़्ज़त करनी चाहिए. दिलीप कुमार जैसे दिग्गज कलाकार के लिए किसी दूसरे कलाकार के लिए ऐसा करना उनकी महानता को दर्शाता है.”
फ़िल्म देखते हुए आप इसी कश्मकश में रहते हैं कि काश दोनों ने कभी एक दूसरे से बात की होती. दिलीप कुमार एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभरते हैं जो अपनी भावनाएँ ज़ाहिर करना नहीं जानता. वो तो नर्स को ये भी नहीं बता पाता कि अंदर जिस औरत ने एक बच्चे को जन्म दिया है वो उसकी पत्नी है.
वहीं अमिताभ बच्चन एक ऐसा नौजवान है जिसने अपने सारे ज़ख़्म और ग़ुस्सा अंदर दबा कर रखा है जो एक दिन बग़ावत बनकर फूटता है.
आँखों से अभिनय करने वाले अमिताभ
आमतौर पर फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन की धमाकेदार, धाँसू एंट्री होती है लेकिन शक्ति में उनका पहला सीन है जहाँ वो मरीन ड्राइव पर बेरोज़गार, टीन के डिब्बे को ठोकर मारते हुए बस यूँ ही टहल रहे हैं.
कहानी की माँग के अनुसार शक्ति में स्क्रीनप्ले में वो गुजाइंश ही नहीं रखी गई थी. बच्चन के किरदार को जो कहना होता है वो या तो उसकी ख़ामोशी कहती है या वो कुछ संवाद जो उसके अंदर के ग़ुस्से दर्शाते हैं.
मसलन वो अपने पिता के लिए कहता है, “नफ़रत है मुझे दुनिया के उस हर क़ानून से जिसे मेरा बाप मानता है. आज से मैं अपना क़ानून ख़ुद बनाऊंगा. ज़िंदगी में जो कुछ भी देखा उसके बाद ये नाम… बेटा, किसी गंदी गाली की तरह लगता है.”
स्मिता पाटिल की कॉमर्शियल फ़िल्म
शक्ति में स्मिता पाटिल का रोल छोटा है जो अमिताभ की ज़िंदगी में उनका प्यार बनकर आती हैं. उस दौर की बहुत सारी फ़िल्मों से अलग इसमें स्मिता एक ऐसी लड़की का रोल करती हैं जो काम करती है, उसका अपना घर है.
जब अमिताभ से मुलाक़ात होती है तो एक तरह से रिश्ते में पहल वो करती हैं जब वो घर पर कॉफ़ी के लिए बुलाती हैं. जब अमिताभ बेघर हो जाते हैं तो बिना ये सोचे कि लोग क्या कहेंगे उसे अपने घर में रहने के लिए कहती हैं और बाद में अमिताभ के साथ लिव-इन में रहती हैं.
शक्ति से पहले अमिताभ के साथ उनकी फ़िल्म नमक हलाल रिलीज़ हो चुकी थी. आर्ट फ़िल्मों के साथ कॉमर्शियल फ़िल्मों में वो अपनी जगह बना रही थीं. शक्ति में दिलीप कुमार का सहारा स्मिता पाटिल ही बनती हैं.
अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार की टक्कर
हालांकि फ़िल्म का मुख्य आकर्षण दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन का आमना सामना ही है.
जैसे, वो सीन जब समुंदर किनारे बाप-बेटे मिलते हैं और दिलीप कुमार जुर्म की दुनिया में जा चुके बेटे को कहते हैं, “विजय मैं आज एक बाप की हैसियत से समझा रहा हूँ. कल पुलिस अफ़सर की हैसियत से मैं तुम्हारे साथ कोई रियायत नहीं कर सकूँगा न हमदर्दी. अगली बार तुम बाप से मिलोगे या पुलिस अफ़सर से इसका फ़ैसला तुम्हे ख़ुद करना है.”
जवाब में बच्चन कहते हैं, “इसका फ़ैसला तो आप कई बरस पहले बचपन में ही कर चुके हैं जब मैं उन बदमाशों के अड्डे में क़ैद था. मैंने फ़ोन पर अपने बाप से बात की थी और दूसरी तरफ़ से एक पुलिस अफ़सर की आवाज़ सुनाई दी. आज भी आपकी आवाज़ से एक पुलिस अफ़सर के लहजे की बू आ रही है.”
फ़िल्म में ऐसा लगता है कि मानों दोनों के बीच एक तरह की जुगलबंदी चल रही हो.
मुंबई एयरपोर्ट पर शूट हुआ क्लाइमैक्स
फ़िल्म का क्लाइमैक्स दिलीप कुमार के शब्दों को सही ठहराता हुआ सा लगता है जब क़ानून से भागे बेटे को पकड़ते वक़्त पुलिस की वर्दी पहने पिता कोई रियायत नहीं करता और उस पर गोली चला देता है.
पिता की बाहों में दम तोड़ता बेटा अपनी पूरी ज़िंदगी में पहली बार कहता है कि उसने बहुत कोशिश की अपने दिल से बाप की मोहब्बत निकाल दूँ लेकिन हमेशा प्यार करता रहा. और जब दिलीप कुमार कहते हैं कि मैं भी तुमसे मोहब्बत करता हूँ तो अमिताभ बोलते हैं कि कभी कहा क्यों नहीं डैड.
इस पूरी कहानी का क्लाइमैक्स और सार सिर्फ़ इस एक बात में छिपा हुआ सा नज़र आता है, ‘कभी कहा क्यूँ नहीं.’
दिलीप कुमार को बेस्ट एक्टर अवार्ड
इस फ़िल्म को लेकर तब ये चर्चा ख़ूब हुई थी कि दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन में से कौन किस पर भारी पड़ा.
फ़िल्म पत्रकार रामचंद्रन श्रीनिवासन के मुताबिक, “फ़िल्म शक्ति में अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार दोनों ने ज़बरदस्त काम किया है. उन दिनों अमिताभ एक तरह से वन स्टॉप शॉप एन्टरटेनर हुआ करते थे. बहुत से लोगों ने रमेश सप्पी को सलाह दी थी कि वो शक्ति में भी मनोरंजक किस्म के सीन डाल दें. रमेश सिप्पी को भी लगा कि फ़िल्म काफ़ी गंभीर है. लेकिन ये फ़िल्म ऐसी थी जिसमें बेहतरीन अभिनय की ज़रूरत थी. रमेश सिप्पी ने किसी भी तरह का समझौता करने से मना कर दिया. ये एक बड़ा कारण रहा कि सबका काम लाजवाब था. मुझे लगता है कि अमिताभ इस बात से ख़ुश रहे होंगे कि इस फ़िल्म में आख़िर में उनकी मौत हो जाती है क्योंकि अमिताभ बच्चन की जिन फ़िल्मों में उनके किरदार की मौत हो जाती थी वो हिट हुआ करती थीं.”
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में दिलीप कुमार को डीसीपी अश्विनी कुमार के रोल के लिए बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला. हालांकि अमिताभ बच्चन भी नामांकित हुए थे.
उस वक़्त ‘इंडिया टुडे’ मैगज़ीन में छपे फ़िल्म रिव्यू में छपा था, “ऐसा हमेशा नहीं होता कि बॉम्बे फ़िल्म इंडस्ट्री एक ऐसी फ़िल्म बनाए जो तकनीकी रूप से शानदार हो और बड़े स्टार कास्ट वाली बड़ी बजट की फ़िल्म हो, जिसमें आर्ट सिनेमा का दिखावा न हो. शक्ति वैसी फ़िल्म है. 1950 में बाप-बेटे की ऐसी कहानी सबसे पहले फ़िल्म संग्राम में आई थी. फिर 1974 में तेलुगू फ़िल्म थंगापट्कम आई जिसमें शिवाजी गणेशन ने बाप-बेटे को रोल किया.”
रमेश सिप्पी शक्ति से कुछ साल पहले शोले बना चुके थे जो अपने आप में इतिहास है लेकिन इसके बाद उन्होंने बच्चन के साथ ही शान भी बनाई जो चल नहीं पाई थी. शक्ति उनके लिए भी एक तरह का शक्ति परिक्षण था.
हालांकि दोनों की कहानी और परिस्थतियाँ एकदम अलग हैं लेकिन एक फ़िल्म के तौर पर देखा जाए तो शक्ति में कहीं न कहीं मदर इंडिया का साया नज़र आता है.
मदर इंडिया में नरगिस राह से भटके बेटे से प्यार तो करती है लेकिन जब वो हद से आगे बढ़ जाता है तो उसे अपने ही हाथों गोली चलाकर मारने से भी नहीं हिचकिचाती. गोली मारने के बाद वो बेटे को बाँहों में भर लेती है. शक्ति में भी दिलीप कुमार कुछ ऐसा ही करते हैं.
पहली और आख़िरी बार दिखे साथ
शक्ति को 1983 में कुल चार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिले थे. मुशिर-रियाज़ की जोड़ी ने बेस्ट पिक्चर अवॉर्ड जीता, सलीम जावेद ने सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले और पी हरिकिशन ने बेस्ट साउंड डिज़ाइन.
फ़िल्म से जुड़ा एक ट्रिविआ ये भी है कि एक मवाली के रोल में सतीश शाह का छोटा-सा सीना था. तब उन्हें कोई ठीक से जानता नहीं था. इसके एक साल बाद ही ‘जाने भी दो यारों’ आ गई थी.
1982 में आई शक्ति में छोटे से स्पेशल रोल में युवा अनिल कपूर भी दिलीप कुमार के पोते के रोल में दिखते हैं. उन दिनों अनिल कपूर कई छोटे रोल किया करते थे. लेकिन शक्ति के अगले ही साल ‘वो सात दिन’ रिलीज़ हुई और अनिल कपूर बतौर हीरो स्थापित हो गए. 1983 में उन्हें मशाल में दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौक़ा मिला और 1986 में कर्मा में.
शक्ति वो पहली और आख़िरी फ़िल्म थी जिसमें दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन ने एक साथ काम किया.