सलमान- शाहरुख को देखते हुए हम जवान हो रहे थे, इन्होंने हमें इतना बिगाड़ दिया कि जी नहीं लगता था: मुकेश छाबड़ा
कास्टिंग डायरेक्शन में नाम और स्टारडम पाने वाले वे मुकेश छाबड़ा ने हम आप जैसे आम लोगों में से कइयों को स्टार बना दिया। उन्होंने अपने इंटरव्यू में कहा- सलमान खान- शाहरुख खान को देखते हुए हम जवान हो रहे थे। इन लोगों ने हम लोगों को इतना बिगाड़ दिया था कि हमारा जी ही नहीं लगता था सिनेमा के बिना।
कास्टिंग डायरेक्शन के क्षेत्र को शोहरत और स्टारडम पाने वाले वे मुकेश छाबड़ा ही हैं, जिन्हें आम लोगों को स्टार बनाने के बाद ड्रीम मैन ऑफ बॉलिवुड के नाम से भी जाना जाता है। गैंग्स ऑफ वासेपुर से अपने करियर की शुरुआत करने वाले मुकेश छाबड़ा अब तक बॉलिवुड की रंग दे बसंती, दंगल, काय पो चे ,चेन्नई एक्सप्रेस, 83 जैसी कई फिल्मों की कास्टिंग के लिए सराहे जाते हैं। एक समय अपने काम के लिए फिल्म वालों के ऑफिसों के चक्कर लगाने वाले मुकेश के ऑफिस के बाहर कलाकार बनने का सपना देखने वालों का हुजूम साफ देखा जा सकता है। उनसे एक खास मुलाकात।
वो कौन-सा मोमेंट था जब आपको सिनेमा के जादू ने प्रभावित किया ?
बचपन से ही मुझे सिनेमा के जादू ने जकड़ लिया था। सलमान खान- शाहरुख खान को देखते हुए हम जवान हो रहे थे। इन लोगों ने हम लोगों को इतना बिगाड़ दिया था की हमारा जी ही नहीं लगता था सिनेमा के बिना। चाहे आप मिडिल क्लास हों या अपर क्लास फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो सबको खुश रखता है क्योंकि 10 रुपए की भी टिकट मिलती थी, 100 रुपए की भी मिलती थी, 5 रुपए की भी मिलती थी तो वो एक ऐसा मनोरंजन का माध्यम था, जो हर किसी की सहज और सरल रूप से उपलब्ध था। ऐसी कई फिल्में हैं, जो मुझे पूरी की पूरी याद है। मुझे बाजी, पत्थर के फूल, सनम बेवफा जो नाम लीजिए मैं आपको सारी कहानी बता दूंगा। सलमान और शाहरुख का मैं बहुत फैन हूं। उनके (सलमान खान) साथ बहुत सारा मौका मिला है। सलमान के साथ बजरंगी भाईजान, जय हो और शाहरुख खान खान के साथ भी काम किया है। मैं शाहरुख सर से दिल्ली में मिला था बचपन में दिल से के सेट पर मिला था। आमिर सर के साथ रंग दे बसंती और सलमान सर के साथ चिल्लर पार्टी के दौरान इंट्रोडक्शन हुआ। तो मुझे ये सब मोमेंट्स अच्छे से याद हैं।
आपने अभिनय का डिप्लोमा लिया, मगर आप कास्टिंग डायरेक्टर जैसे अनकन्वेंशनल फील्ड को चुना?
मुझे लगता है ये जिंदगी की पसंद होती है और फिर जिंदगी आपको जहां लेकर जाती है आप उसी तरफ चले जाते हैं। मुझे लगता है आप अपने दिल से नहीं लड़ सकते हैं। मैं हमेशा ही फिल्म मेकर बनना चाहता था। मेरा जो डिप्लोमा है वो भले ऐक्टिंग का है, मगर मुझे एक्टिंग की बारीकियां समझना बहुत जरूरी था। जब मैं एनएसडी (नैशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा) में नौकरी करता था, तब भी ऐक्टिंग मेरे कोर्स का हिस्सा था। मुझे हमेशा फिल्म मेकर ही बनना था। मुझे लगता था कि मुझसे बहुत अच्छे लोग हैं, जो अच्छी एक्टिंग कर रहे हैं, तो उनको मौका मिलना चाहिए। जिस काम के आप मास्टर नहीं हो वो काम नहीं करना चाहिए और जिस काम में ज्यादा मन लगता है वो काम करना चाहिए। और मुझे लगता है इस काम में मेरा ज्यादा मन लगता है तो मैं ये काम करने लगा।
आप कास्टिंग डायरेक्शन की ओर कब मुड़े?
मैं बहुत सारी फिल्मों में असिस्टेंट के रूप में कास्टिंग तो कर ही रहा था। हां, जहां से मुझे लगा की इस जॉब को थोड़ा और गंभीरता से लिया जा सकता है, वो फिल्म थी, गैंग्स ऑफ वासेपुर’। उसके पहले मैंने रिची मेहता के साथ असिस्ट किया था, चिल्लर पार्टी भी हो चुका था, बहुत सारा काम दिल्ली में भी हुआ था, लेकिन जो अटेंशन मिला इस डिपार्टमेंट को मेरे हिसाब से वो गैंग्स ऑफ वासेपुर से मिला जहां लोगों ने देखा कि फर्स्ट क्रेडिट से लेकर ऐक्टर के बोलने तक सभी में, कास्टिंग डायरेक्टर को अहमियत मिली।उसके बाद लगा कि इसको थोड़ा और पेशेवर तरीके से कर सकते हैं। फिर एक छोटा-सा ऑफिस खोला, जो आज इतना बड़ा हो गया।
इस अलग से प्रोफेशन के लिए आपको संघर्ष तो खूब करना पड़ा होगा? जाहिर सी बात है, कास्टिंग डायरेक्टर तो पहले इतने प्रचलित नहीं थे?
ये सच है, जब मैंने शुरुआत की थी, तब लोग कास्टिंग डायरेक्टर के जॉब को ऐसे सीरियसली नहीं लेते थे। बहुत रिजेक्शन मिला है मुझे कि तेरी क्या जरूरत है? हम खुद कर लेंगे। एक बार एक फिल्म मेकर के पास में 2-3 घंटे तक वेट कर रहा था तो उन्होंने मुझे पूछा कि क्या करते हो? तो मैंने कहा, कास्टिंग। फिर उन्होंने पूछा कि क्या होती है कास्टिंग तो उस वक्त मेरा दिल बैठ गया। लेकिन वक्त बदला आज वही डायरेक्टर साथ में काम करते हैं। जब पहली दिवाली थी बॉम्बे में तब मेरा एक दोस्त था देवेंद्र, उस वक्त मेरी जेब मुश्किल से 50 रुपए भी नहीं थे। बॉम्बे में आप दिल्ली से आए हैं, जहां पर दिवाली ही सबसे बड़ा त्योहार होता है। घर में आप बता नहीं सकते कि आपकी जेब में 50 रुपए हैं, वरना वो कहेंगे, वापिस आ जाओ। मैंने वो दिन भी देखे हैं, जब मैं तिग्मांशु धूलिया के ऑफिस के बाहर घूमता रहता था ताकि वे मुझे लंच के लिए पूछ लें। गोरेगांव में 8-10 लोगों के साथ रहता था। तब 350 रुपए में हमको एक बेड मिलता था। मैं समझता हूं, संघर्ष तो हम सभी को करना पड़ता है, मगर जब आपको कामयाबी मिल जाती है, तो संघर्ष की वो कहानियां प्रेरणादायी लगने लगती हैं।आपका शहर में टिकना सबसे जरुरी है। दिल लगा कर बिना नकारात्मक हुए आपको कमा करना पड़ेगा। अगर आप शांति से काम करेंगे, तो शहर आपको अपना लेगा।
कास्टिंग में आपके लिए सबसे ज्यादा चैलेंजिंग कौन-सी फिल्म रही ?
हर फिल्म चैलेंजिंग होती है। दंगल ने बहुत समय लिया था, वासेपुर ने बहुत समय लिया था। दंगल में डेढ़ साल लगा, चिल्लर पार्टी में अलग बच्चे ढूंढ़ने थे तो बहुत समय लग गया। काई पो चे में तीन नए लड़के खोजने में बहुत वक्त लग गया। सबसे ज्यादा समय वासेपुर में लगा था, क्योंकि नया दौर था और हम खुद भी तो सीख रहे थे उसमें। अब तो खैर लोग कास्टिंग के बारे में जानने लगे हैं, तो थोडा आसान हो गया है सब लेकिन जब आपको पता ही नहीं है तो दिक्कत तो होती है। पीके और डी डे में भी काफ़ी समय देना पड़ा था। दिल्ली क्राइम की कास्टिंग बहुत जल्दी हो गई थी। रिची मेहता के साथ काम करते हुए बहुत अच्छी ट्यूनिंग हो गई थी। मैं दिल्ली से हूं तो इतना दिल्ली के लोगों को देखा है मैंने, तो उसकी कास्टिंग सिर्फ 5 दिन में हो गई थी।
कास्टिंग निर्देशक के रूप में आपका काम किस तरह से होता है?
हमको डायरेक्ट एक स्क्रिप्ट देता है, हम वो स्क्रिप्ट पढ़ते हैं। उस डायरेक्ट के विजन को समझ कर हम तलाश करते हैं कि डायरेक्ट क्या चाह रहा है, कयोंकि उनकी अपनी पसंदीदा कहानी होती है किस तरह के किरदार उसको चाहिए, किस तरह के लोगों को वो देखना चाहता है। उनके ब्रीफ के हिसाब से हम अपना ब्रीफ बनाते हैं और उस ब्रीफ के हिसाब से हम लोगों की तलाश शुरू करते हैं। वो तलाश फिर इस शहर में करनी है या किसी और शहर में ये तो डिपेंड करता है कि कहानी कहां पर सेट है। उन कलाकारों को ढूढने का सोर्स ऐसे होता है जैसे हम लोकल ग्रुप में हम पोस्ट डालते हैं और लोग खुद आ जाते हैं हमसे कॉन्टैक्ट करके। जहां भी लोग कला से जुड़े हुए हैं वो सब आ जाते हैं फिर वो कोई भी शहर हो तो ऐसे लोग जुड़ते हैं। हाल-फिलहाल मेरी टीम में में 70 लोग हैं।
जितना इस काम में मेहनत है उतना पैसा मिल पाता है आपको?
नहीं मिलता, लेकिन एक पल के बाद लगता है आपके पास था ही क्या? जब कुछ था ही नहीं तो जितना मिला, वो बहुत ही है। दुख तब होना चाहिए जब आपके पास बहुत था और खत्म हो गया जब था ही कम तो को मिला है, उसमें खुश रहिए। जब मैं अपने माता-पिता के पास जाता हूं, तो बोलते हैं जब था ही नहीं तो जो है बस सही है और क्या चाहिए।
वो कौन-सा दौर था, जब आपको लगा कि आप अपने माता-पिता के लिए कुछ कर पाए?
जब मैं अपने मां -बाप को मुंबई ले कर आया उस वक्त लगा कि एक बेटे के रूप में कुछ कर पाया हूं। मैं यहां मुंबई आ गया था, भाई शादी करके अपने घर और माता- पिता अकेले हो गए है, तो मैं इंतजार कर रहा था कि कम मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं, सेटल हो जाऊं ताकि अपने मां -बाप को यहां बुला सकूं। मैं 9 साल पहले उनको यहां पर ले आया। तो अब मेरे पास गाड़ी है, बंगला है और मां-बाप भी हैं। घरवाली अभी नहीं है, लेकिन पेरेंट्स के रूप में दो बच्चे हैं, 72 और 75 साल के।
आपने कास्टिंग डायरेक्टर को नाम, रिस्पेक्ट और स्टारडम दिलाया, मगर हमारी इंडस्ट्री में एक शब्द है, कास्टिंग काउच वो हमेशा विवादों में रहा है, उस पर आपका क्या कहना है ?
वो हमेशा विवादों में ही रहेगा। मगर मैं यही कहना चाहता हूं कि हम सुबह से रात तक काम करते हैं, बहुत मेहनत करते हैं। हमारा काम काफी जटिल है, अब सारी इंडस्ट्री खराब नहीं होती, तो पता नहीं ये परसेप्शन कब ठीक होगा? या ठीक नहीं होगा, क्योंकि आप इसका कुछ कर नहीं सकते।
मगर आपको लगता है, इंडस्ट्री में ऐसे लोग हैं, जिनके कारण ये बातें होती हैं?
मुझे लगता है, हर फील्ड के बारे में कोई तीन -चार बातें तो ऐसे बनाएगा ही और उसके बारे में कुछ ना कुछ बोलेगा ही।
अपको आपके पेशे के कारण कभी डर या डिस्कम्फ़र्ट हुआ है?
डिसकम्फ़र्ट होता ही है, क्योंकि आप इतनी मेहनत करते हो और कोई भी आकर कुछ भी बोलकर चला जाए, दुख तो होता ही है। लेकिन ऐसे में सिर्फ आप अपना काम करते रहिए। मेरे लिए कास्टिंग काम नहीं है जिंदगी है। मैं बहुत मेहनत करता हूं, सुबह से लेकर रात तक ऑफिस में ही होते हैं हम लोग।24 घंटे यही करते हैं।
आपकी ऐसी कौन-सी खोज है, जिस पर आपको नाज है?
हर वो बच्चा जो अच्छा कर रहा है उस पर मुझे नाज है। जैसे राज कुमार राव, सुशांत सिंह, सान्या मल्होत्रा, फातिमा सना शेख, प्रतीक आदि। मुझे लगता है हर वो ऐक्टर जो आम इंसान से जाना-माना स्टार बन गया है, तो अच्छा है,लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि बाकी लोग जिनको खोजा है, वो अच्छे नहीं थे। बाकी जितने लोग हैं फिर चाहे वो फैमिली मैन के हों या दिल्ली क्राइम से हों, सभी पर मुझे बहुत गर्व है। सब अच्छा कर भी रहे हैं।
आप पर तो फिल्मों में रोल दिलाने का काफी प्रेशर रहता होगा?
बहुत प्रेशर होता है, क्योंकि सबको एक्टर बनना है। इनफ्लूंसर, ब्यूरोक्रेट हर तरह के लोग आपको फोन करते हैं। जो रिटायर डॉक्टर हैं, उनको भी ऐक्टिंग करनी है, तो वो प्रेशर तो होता ही है, लेकिन मैं तो सिर्फ उनको यही बोलता हूं कि सही होगा तो मैं आपको जरूर बताऊंगा। फिर जब वो लोग फिल्म देखते हैं, तो चुप हो जाते हैं,क्योंकि वो समझ जाते हैं कि इसमें हमारे लिए कुछ था नहीं। मगर समझाने के बावजूद कई लोग नाराज हो जाते हैं।