सीबीआई ने जुलाई 2010 में अमित शाह को 2005 में सोहराबुद्दीन शेख की कथित मुठभेड़ में हुई हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया था. सितंबर 2012 में सुप्रीम कोरर्ट ने मुकदमे की सुनवाई को यह कहते हुए गुजरात से बाहर महाराष्ट्र भेज दिया कि उसे ”भरोसा है कि सुनवाई की शुचिता को कायम रखने के लिए इसे राज्य से बाहर चलाया जाना जरूरी है.” शाह को दिसंबर 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मामले से बरी कर दिया
बृजगोपाल हरकिशन लोया मुंबई में सीबीआई की विशेष अदालत के प्रभारी जज थे जिनकी मौत 2014 में 30 नवंबर की रात और 1 दिसंबर की दरमियानी सुबह हुई, जब वे नागपुर गए हुए थे. उस वक्त वे सोहराबुद्दीन केस की सुनवाई कर रहे थे जिसमें मुख्य आरोपी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह थे. उस वक्त मीडिया में बताया गया कि लोया की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई है. इस मामले में नवंबर 2016 से नवंबर 2017 के बीच अपनी पड़ताल में मैंने जो कुछ पाया, वह लोया की मौत के इर्द-गिर्द की परिस्थितियों पर कुछ असहज सवाल खड़े करता है- जिनमें एक सवाल उनकी लाश से जुड़ा है जब वह उनके परिवार के सुपुर्द की गई थी.
मैंने जिन लोगों से बात की, उनमें एक लोया की बहन अनुराधा बियाणी हैं जो महाराष्ट्र के धुले में डॉक्टर हैं. बियाणी ने मेरे सामने एक विस्फोटक उद्घाटन किया. उन्होंने बताया कि लोया ने उन्हें यह जानकारी दी थी कि बंबई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मोहित शाह ने अनुकूल फैसला देने के एवज में लोया को 100 करोड़ रुपए की रिश्वत की पेशकश की थी. उन्होंने बताया कि अपनी मौत से कुछ हफ्ते पहले लोया ने उन्हें यह बात बताई थी जब उनका परिवार गाटेगांव स्थित अपने पैतृक निवास पर दिवाली मनाने के लिए इकट्ठा हुआ था. लोया के पिता हरकिशन ने भी मुझे बताया था कि उनके बेटे का कहना था कि एक अनुकूल फैसले के बदले उन्हें पैसे और मुंबई में एक मकान की पेशकश की गई है.
बृजगोपाल हरकिशन लोया को जून 2014 में सीबीआइ की विशेष अदालत में उनके पूर्ववर्ती जज जेटी उत्पट केतबादलेके बाद नियुक्त किया गया था. अमित शाह ने अदालत में पेश होने से छूट मांगी थी जिस पर उत्पट ने उन्हें फटकार लगाई थी. इसके बाद ही उनका तबादला हुआ. आउटलुक में फरवरी 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार: ”इस एक साल के दौरान जब उत्पट सीबीआइ की विशेष अदालत की सुनवाई देखते रहे और बाद में भी, कोर्ट रिकॉर्ड के मुताबिक अमित शाह एक बार भी अदालत नहीं पहुंचे थे. यहां तक कि बरी किए जाने के आखिरी दिन भी वे अदालत नहीं आए और शाह के वकील ने उन्हें इस मामले में रियायत दिए जाने का मौखिक प्रतिवेदन दिया जिसका आधार यह बताया कि वे ‘मधुमेहग्रस्त हैं और चल-फिर नहीं सकते’ या कि ‘वे दिल्ली में व्यस्त हैं.”’
आउटलुक की रिपोर्ट कहती है, ”6 जून, 2014 को उत्पट ने शाह के वकील के सामने नाराजगी जाहिर कर दी. उस दिन तो उन्होंने शाह को हाजिरी से रियायत दे दी और 20 जून की अगली सुनवाई में हाजिर होने का आदेश दिया लेकिन वे फिर नहीं आए. मीडिया में आई रिपोर्टों के मुताबिक उत्पट ने शाह के वकील से कहा, ‘आप हर बार बिना कारण बताए रियायत देने की बात कह रहे हैं.” रिपोर्ट कहती है कि उत्पट ने ”सुनवाई की अगली तारीख 26 जून मुकर्रर की लेकिन 25 जून को उनका तबादला पुणे कर दिया गया.” यह सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2012 में आए उस आदेश का उल्लंघन था जिसमें कहा गया था कि सोहराबुद्दीन मामले की सुनवाई ”एक ही अफ़सर द्वारा शुरू से अंत तक की जाए.”
लोया ने शुरू में अदालत में हाजिर न होने संबंधी शाह की दरख्वास्त पर नरमी बरती. आउटलुक लिखता है, ”उत्पल के उत्तराधिकारी लोया रिआयती थे जो हर तारीख पर शाह की हाजिरी से छूट दे देते थे.” लेकिन हो सकता है कि ऊपर से दिखने वाली यह नम्रता प्रक्रिया का मामला रही हो. आउटलुक की स्टोरी कहती है, ”ध्यान देने वाली बात है कि उनकी एक पिछली नोटिंग कहती है कि शाह को ‘आरोप तय होने तक’ निजी रूप से हाजिर होने से छूट जाती है.’ साफ़ है कि लोया भले उनके प्रति दयालु दिख रहे हों, लेकिन शाह को आरोपों से मुक्त करने की बात उनके दिमाग में नहीं रही होगी.” मुकदमे में शिकायतकर्ता रहे सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन के वकील मिहिर देसाई के मुताबिक लोया 10,000 पन्ने से ज्यादा लंबी पूरी चार्जशीट को देखना चाहते थे और साक्ष्यों व गवाहों की जांच को लेकर भी काफी संजीदा थे. देसाई कहते हें, ”यह मुकदमा संवेदनशील और अहम था जो एक जज के बतौर श्री लोया की प्रतिष्ठा को तय करता.” देसाई ने कहा, ”लेकिन दबाव तो लगातार बनाया जा रहा था.”
लोया की भतीजी नूपुर बालाप्रसाद बियाणी मुंबई में उनके परिवार के साथ रहकर पढ़ाई करती थी. उसने मुझे बताया कि वे देख रही थीं कि उनके अंकल पर किस हद तक दबाव था. उन्होंने बताया, ”वे जब कोर्ट से घर आते तो कहते थे, ‘बहुत टेंशन है.’ तनाव काफी था. यह मुकदमा बहुत बड़ा था. इसस कैसे निपटें. हर कोई इसमें शामिल है.” नुपुर के मुताबिक यह ”राजनीतिक मूल्यों” का प्रश्न था.
देसाई ने मुझे बताया, ”कोर्टरूम में हमेशा ही जबरदस्त तनाव कायम रहता था. हम लोग जब सीबीआइ के पास साक्ष्य के बतौर जमा कॉल विवरण का अंग्रेजी अनुवाद मांगते थे, तब डिफेंस के वकील लगातार अमित शाह को सारे आरोपों से बरी करने का आग्रह करते रहते थे.” उन्हेांने बताया कि टेप की भाषा गुजराती थी जो न तो लोया को और न ही शिकायतर्ता को समझ में आती थी.
देसाई ने बताया कि डिफेंस के वकील लगातार अंग्रेजी में टेप मुहैया कराए जाने की मांग को दरकिनार करते रहते थे और इस बात का दबाव डालते थे कि शाह को बरी करने संबंधी याचिका पर सुनवाई हो. देसाई के मुताबिक उनके जूनियर वकील अकसर कोर्टरूम के भीतर कुछ अनजान और संदिग्ध से दिखने वाले लोगों की बात करते थे, जो धमकाने के लहजे में शिकायतकर्ता के वकील को घूरते थे और फुसफुसाते रहते थे.
देसाई याद करते हुए बताते हैं कि 31 अक्टूबर को एक सुनवाई के दौरान लोया ने पूछा कि शाह क्यों नहीं आए. उनके वकीलों ने जवाब दिया कि खुद लोया ने उन्हें आने से छूट दे रखी है. लोया की टिप्पणी थी कि शाह जब राज्य में न हों, तब यह छूट लागू होगी. उन्होंने कहा कि उस दिन शाह मुंबई में ही थे. वे महाराष्ट्र में बीजेपी की नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने आए थे और अदालत से महज 1.5 किलोमीटर दूर थे. उन्होंने शाह के वकील को निर्देश दिया कि अगली बार जब वे राज्य में हों तो उनकी मौजूदगी सुनिश्चित की जाए और सुनवाई की अगली तारीख 15 दिसंबर मुकर्रर कर दी.