जब जंगल रोते हैं, तो सभ्यता शर्मिंदा हो जाती है, प्रकृति का प्रतिशोध हैदराबाद के ग्रीन लेंस से लेकर हसदेव के जंगल तक हो रहा है एक जनविरोधी विकास……. महेन्द्र सिंह मरपच्ची

जब जंगल रोते हैं, तो सभ्यता शर्मिंदा हो जाती है, भारत एक ऐसा देश है जिसे वन-परंपरा, नदियों की पूजा और प्रकृति के सहजीवन के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन आज यही भारत अपने ही जंगलों को, अपनी ही नदियों को और अपने ही आदिवासियों को विकास के नाम पर कुचल रहा है। यह कहानी दो जगहों की पीड़ा को जोड़ता है, पहला है तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में ग्रीन लेंस की निर्ममता से हो रही कटाई और दूसरा है छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खनन के नाम पर हो रही जनजातीय समुदाय और वन्यजीवों की बेदखली।
यह कोई सामान्य कहानी नहीं है यह चीख है, यह सवाल है, यह दस्तावेज़ है उस अपराध का जो हमारे समय में हमारे जंगलों के खिलाफ किया जा रहा है।

हैदराबाद का ग्रीन लेंस कहे जाने वाले एक जीवित जंगल की हो रही हत्या
तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद कभी संस्कृति, तकनीकी तरक्की और हरियाली के मेल के लिए पहचाना जाता था।

लेकिन बीते एक दशक में वहां का एक बेहद अहम पर्यावरणीय क्षेत्र जिसे ‘ग्रीन लेंस’ कहा जाता है, अब वही विनाश के गर्त में है।
ग्रीन लेंस हैदराबाद के आसपास फैला हुआ वह हरा इलाका है जिसमें शहर की सबसे अधिक जैवविविधता है। यह क्षेत्र एक इकोलॉजिकल जोन है, जिसमें हजारों पेड़-पौधे, सैकड़ों पशु-पक्षी प्रजातियाँ और कीटों का बायोस्फीयर मौजूद था।
लेकिन अब यह क्षेत्र तेलंगाना सरकार और नगर विकास एजेंसियों की नजर में ‘प्राइम लोकेशन’ बन चुका है। मल्टीनेशनल कंपनियाँ, रियल एस्टेट ग्रुप और इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपर मिलकर इस हरित क्षेत्र को खत्म कर रहे हैं, और यह सब सरकार की सरकारी संरक्षण में हो रहा है।
क्या हो रहा है आखिर ग्रीन लेंस में?
सड़क परियोजनाओं के लिए हज़ारों पेड़ों की कटाई, रियल एस्टेट टाउनशिप के लिए वनों का समतलीकरण और वेटलैंड्स और जल स्रोतों को भरकर निर्माण कार्य कर रहे है । हैदराबाद के निवासी सांस लेने के लिए जिस हरियाली पर निर्भर थे, अब वह कंक्रीट में बदल रही है। पशु और पक्षी अपने प्राकृतिक आवास से बेदखल हो रहे हैं।
तेलंगाना सरकार की भूमिका अब विकास के नाम पर विनाश कर रही
सरकारी रिपोर्टों और नीति दस्तावेजों में कहा गया कि यह क्षेत्र ‘बिना उपयोग’ वाली भूमि है। यह झूठ गढ़ा गया ताकि कॉरपोरेट को वन भूमि सौंप दी जाए। ग्रीन लेंस के भीतर कई ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील घोषित किया गया था, लेकिन इन सभी को नजरअंदाज कर दिया गया। तेलंगाना के शहरी प्रशासन विभाग और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने जनता की आपत्तियों को अनदेखा कर, पर्यावरणीय मंजूरी दे दी।
मीडिया की चुप्पी तो फिर जंगल की आवाज की उठाए कौन?
इस भयावह विनाश को भारतीय मुख्यधारा मीडिया ने लगभग पूरी तरह से अनदेखा कर दिया। कोई प्राइम टाइम बहस नहीं, कोई विशेष रिपोर्ट नहीं। इस देश की मीडिया पशु पंछियों की रोती बिलखती चीख को सुनने से अधिक, मेट्रो शहरों के फैशन शो की गूंज सुनना पसंद करती है।
इसी तरह हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ का हरा दिल भी राजनीति का शिकार हुआ
हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ का सबसे समृद्ध वनक्षेत्र, जो कोरबा, सरगुजा और सूरजपुर जिलों में फैला है, जो कोयला खनन के लोभ का शिकार हो रहा है। हसदेव एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां जंगल, नदी, पशु-पक्षी और जनजातीय समुदाय की जीवन एक साथ सांस लेते हैं। यहां की भासदेव नदी इस क्षेत्र की जीवनरेखा है, जो सिर्फ जल नहीं देती, बल्कि पूरे सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन को दिशा देती है। यही नदी आज जहर से भर रही है, क्योंकि इसके ऊपर से निकलने वाली खदानें जल, जंगल और जमीन को लील रही हैं।
खनन का सच है क्या कौन कर रहा है दोहन?
इस विनाश के पीछे कोई एक पार्टी नहीं है। 2010 से 2024 तक कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सरकारें इस क्षेत्र को कोयला कंपनियों को सौंपने में बराबर की भागीदार रही हैं। छत्तीसगढ़ की सरकार ने पर्यावरणीय विरोधों के बावजूद खदान परियोजनाओं को मंजूरी दी, जबकि केंद्र सरकार ने अदानी समूह जैसी कंपनियों को खनन कार्य सौंपा।
“ग्रामसभा की सहमति” को कागज़ों पर बना दिया गया। असल में तो ग्रामीणों ने विरोध जताया, लेकिन दस्तावेजों में उन्हें सहमत दिखाया गया।

जनजातीय समुदाय की पीड़ा, जंगल नहीं बचेगा तो जीवन कहां होगा?
हसदेव में रहने वाले हजारों जनजातीय समुदाय विशेष रूप से गोंड, उरांव और बैगा समुदाय अब विस्थापन की कगार पर हैं। वे न तो शहर में समा सकते हैं, न खेती की जमीन मिल रही है। उनकी देवी-देवता जंगल में बसते हैं। जब जंगल नहीं बचेगा, तो न उनकी पूजा बचेगी, न पहचान। जनजातीय समुदायों के लिए जंगल केवल लकड़ी या फल-फुल तोड़ना काटना नहीं है बल्कि एक जीवित साथी है। वह उनकी दवा है, देवता है, जीवन है।
हसदेव आंदोलन जंगल सत्याग्रह की गूंज
2021 से अब तक जनजातीय समुदाय ने “जंगल बचाओ” आंदोलन के तहत सत्याग्रह शुरू किया। पेड़ों से लिपट कर, हाथों में परंपरागत डंडा लेकर और गीतों के माध्यम से उन्होंने पर्यावरण की रक्षा की गुहार लगाई।
लेकिन उनके विरोध को दरकिनार कर, रातों-रात सैकड़ों पेड़ काट दिए गए। उन्हें ‘अवांछित तत्व’ कहा गया, जेल में डाला गया, लेकिन वे आज भी नहीं झुके।
छत्तीसगढ़ सरकार का दिखा दोहरा चरित्र
छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने ही घोषणापत्र में आश्वासन दिया था कि उनकी अनुमति के बिना कोई भी वन भूमि नहीं ली जाएगी। लेकिन जब कॉर्पोरेट कंपनियों की फाइलें आईं, तो ग्रामसभा की मंजूरी को नकली तरीके से तैयार करवाया गया। स्थानीय जनप्रतिनिधियों को खनन कंपनियों के साथ गठजोड़ में देखा गया । भासदेव नदी जिसे लोग मां मानते हैं, उसे जहर पीने को मजबूर कर दिया गया।
प्राकृतिक विरासत का पतन सिर्फ पेड़ नहीं कटते बल्कि पूरी सभ्यता उजड़ती है
जब हसदेव में खनन होता है, तो पेड़ों के साथ-साथ मिट्टी, जल और हवा की गुणवत्ता समाप्त होती है। जंगली जानवरों का आवास छिन जाता है, और इंसान-पशु टकराव बढ़ता है। जलवायु असंतुलन, सूखा और बाढ़ जैसे संकट बार-बार सामने आते हैं।
ग्रीन लेंस और हसदेव ये सिर्फ दो उदाहरण नहीं हैं, ये हमारे देश की आंतरिक आत्मा की टूटन हैं।
एक राष्ट्र जो अपने जंगलों से मुंह मोड़ लेता है, वो खुद को खत्म करता है
भारत एक ऐसा देश है, जो वैदिक काल से पेड़ों को देवता मानता आया है। ‘वृक्षो रक्षति रक्षितः’ जैसी ऋचाएं हम सबने पढ़ी हैं। लेकिन आज जब जंगल हमारे लिए सबसे जरूरी हैं, इस गहरी जलवायु संकट के दौर में तब हम उन्हीं जंगलों को मिटा रहे हैं।
हैदराबाद के ग्रीन लेंस और छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य दो ऐसे बिंदु हैं जहां यह आत्महत्या स्पष्ट रूप से दिख रही है।
केंद्र सरकार की पर्यावरण विरोधी नीति का केंद्र
भारत सरकार द्वारा लाया गया पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA) संशोधन 2020 स्पष्ट करता है कि सरकार पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रिया को कॉरपोरेट्स के लिए आसान बना रही है। इस संशोधन ने स्थानीय लोगों की भागीदारी कम कर दी है और परियोजनाओं को पहले से शुरू करने की अनुमति दे दी है ल, बिना मंजूरी के भी इससे जंगलों की रक्षा करने की ताकत स्थानीय लोगों से छीन ली गई है।
तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में दो अलग चेहरे पर दोनों का एक चरित्र
तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद जहां हाई-टेक सिटी के नाम पर ग्रीन लेंस को काट रही है, वहीं छत्तीसगढ़ सरकार जो जनजातीय समुदाय की हितों की बात करती है, उन्हीं के जंगल अदानी समूह को सौंप दी है।
राजनीति के दोनों चेहरे चाहे वह सत्तारूढ़ हो या विपक्ष विकास के नाम पर प्रकृति की बलि चढ़ाने में एकजुट हो गए हैं।
प्रश्न मीडिया से क्या जंगल की चीख टीआरपी नहीं लाती?
हर रोज टीवी पर हम बॉलीवुड, क्रिकेट और चुनावी जुमलों की चर्चा सुनते हैं, लेकिन कितनी बार हसदेव के पेड़ों की चीख या ग्रीन लेंस के कटते जीवन पर बहस होती है?
क्या मीडिया अब कॉर्पोरेट का प्रचारक बन चुका है? क्या पत्रकारिता की आत्मा सिर्फ शहरी चकाचौंध तक सीमित रह गई है?
विश्व को संदेश यह सिर्फ भारत की नहीं पूरी मानवता की हार है
अगर भारत जैसे जैवविविधता से भरे देश में जंगल कटते हैं, तो इसका असर सिर्फ स्थानीय नहीं, वैश्विक स्तर पर होगा। जलवायु संकट, जैवविविधता का विनाश और मानवाधिकार हनन ये सब इस “विकास” की असली कीमत हैं।
संयुक्त राष्ट्र, ग्रीनपीस, एमनेस्टी इंटरनेशनल, और आईपीसीसी जैसी संस्थाओं को इस पर खुलकर बोलना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी आपने संयुक्त राष्ट्र में जलवायु संकट पर भाषण दिया। आपने ‘लाइफ’ (Lifestyle for Environment) की बात की। लेकिन क्या यह पर्यावरण की रक्षा है, जहां आपकी सरकारें जंगल बेच रही हैं? जनता पूछ रही हैं क्या कॉर्पोरेट मुनाफा देश से बड़ा हो गया है?
रोको ये विनाश कार्य वरना इतिहास माफ नहीं करेगा
यह कहनी किसी दल, किसी व्यक्ति या किसी विचारधारा के लिए नहीं, बल्कि प्रकृति के लिए है। ग्रीन लेंस और हसदेव के जंगल अब हमारे लिए आखिरी चेतावनी हैं। अगर अब भी हम नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ रेगिस्तान और स्मृति में बचे जनजातीय समुदायों। की गीतों को जानेंगी। और हां एक आखिरी निवेदन अपने बच्चों से पूछिए कि वे जंगल को किताबों में पढ़ना चाहते हैं या असल जिन्दगी में देखना चाहते है । फिर तय कीजिए कि किस विकास का समर्थन करेंगे।

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